भूमि संकट से जूझता उत्तराखंड-पुरुषोत्तम शर्मा
मित्रों! आज मुझे आपके बीच उत्तराखंड में पैदा हो रहे भूमि संकट, भूमि संबंधी कानूनों और पहाड़ से पलायन के बुनियादी कारणों पर अपनी बातें रखने को कहा गया है. मैं “उत्तराखंड एक चिंतन” संस्था और भाई सुरेश नौटियाल को धन्यवाद देना चाहता हूँ कि वह हर साल पहाड़ से जुड़े बुनियादी सवालों पर चर्चा करा कर पहाड़ के विकास की वैकल्पिक अवाधारणा को सामने लाने के लिए प्रयासरत हैं. आज जब उत्तराखंड में 19 वर्षों से “विकास-विकास-विकास” के नारे के पीछे दौड़ते हुए हम अपना सब कुछ खोते जा रहे हैं, हमारे गाँव, हमारे घर और हमारी जमीनें इस विकास की नीति के नारे ने बंजर कर दी हैं, तब हमें सोचना है कि पहाड़ में औद्योगिक निवेश के लिए बदले जा रहे भू कानून क्या अब हमारे पुरुखों की जमीनों पर डाका डालने की साजिश तो नहीं है?
ज़रा सोचिए तो! जो जमीन हमारे बच्चों के भविष्य को निगल रही है, वही जमीन बाहर से जा रहे लोगों के भविष्य को कैसे संवार रही है? जी हां! इसका कारण है सरकार की पूंजीपति परस्त नीतियाँ. जिन बाहरी पूंजीपतियों को सरकार आज पहाड़ में निवेश के लिए आमंत्रित कर रही है, वे यहाँ क्या ला रहे हैं? कुछ भी नहीं. उन्हें पूंजी के लिए ऋण और उस पर भारी सब्सिडी तथा रियायती व्याज हमारे बैंकों से हमारी सरकार दिला रही है. उन्हें हमसे छीन कर जमीन भी कौड़ियों के भाव सरकार दिला रही है. मूलभूत सुविधाएं जैसे सड़क, सस्ती बिजली, सस्ता पानी सहित बुनियादी ढांचा सरकार खड़ा कर के दे रही है. तीन से दस साल तक टैक्सों में छूट सरकार उन्हें दे रही है. अगर यह सब हमारे बच्चों को ही देने की नीति उत्तराखंड सरकार बनाए तो क्या पहाड़ खाली होंगे? तब क्या हमारी तमाम क्षेत्रों में कार्यरत प्रतिभाओं का बाहर पलायन होगा? अपने मूल विषय पर जाने से पहले ये सवाल में आपके बीच छोड़ कर जा रहा हूँ.
मैंने अपने आज के विषय को दो भागों में बांटा है. पहला है “भूमि संकट के मुहाने पर उत्तराखंड”. इसमें पहाड़ी राज्य की अवधारणा के विपरीत राज्य का गठन, उत्तराखंड की भूमि के आंकड़े, पहाड़ में भूमि संबंधी कानून, पहाड़ में भूमि बंदोबस्तों का इतिहास, सीलिंग से फालतू जमीनों का वितरण और राज्य के लिए एक नए भूमि सुधार कानून की जरूरत पर जोर दिया गया है. दूसरे भाग में भारी पैमाने पर पलायन के कारणों पर चर्चा होगी. इसमें पहाड़ में कृषि की उपेक्षा, चकबंदी, पर्वतीय कृषि उत्पादों का न्यूनतम समर्थन मूल्य और उसकी सरकारी खरीद की गारंटी, जंगली व आवारा पशुओं से फसलों की रक्षा, नाप भूमि में बृक्षों के व्यावसायिक उत्पादन का अधिकार, वनों और वन पंचायतों से किसानों के परम्परागत अधिकारों का छिनना जैसे मुद्दे प्रमुख हैं. आप देखेंगे कि समस्याओं के साथ ही वैकल्पिक नीतियों पर भी मैंने रोशनी डालने की कोशिश की है.
भाग - एक
भूमि संकट से जूझता उत्तराखंड
भाजपा की अटल सरकार ने ख़त्म की पहाड़ी राज्य की अवधारणा
राज्य में जनता की मांग के विपरीत हरिद्वार जनपद को जोड़ कर तत्कालीन भाजपा सरकार ने हमारी पर्वतीय राज्य की अवधारणा को ख़त्म कर दिया था. उसने इस नवोदित राज्य की संरचना को ही पूरी तरह बदल दिया. हरिद्वार का क्षेत्रफल उत्तराखंड में मात्र 5 प्रतिशत है. जबकि राज्य बनते समय राज्य की कुल आबादी में हरिद्वार का हिस्सा 20 प्रतिशत था. इसी तरह राज्य की कृषि भूमि के मामले में भी जो 14 प्रतिशत कृषि भूमि थी उसमें अकेले 5 प्रतिशत हरिद्वार की है. यानी कुल कृषि भूमि का लगभग 35 प्रतिशत. इसका नतीजा यह हुआ कि आबादी के हिसाब से विकास कार्यों का 20 प्रतिशत बजट और कृषि पर मिलने वाली सुविधाओं का 35 प्रतिशत अकेले राज्य के 5 प्रतिशत क्षेत्रफल हरिद्वार में जाने लगा. राज्य बनने के बाद संशाधनों के इस असमान वितरण के कारण पहाड़ से पलायन तेजी से बढ़ने लगा. इस पलायन से राज्य के मैदानी क्षेत्रों में आबादी का घनत्व और बढ़ता गया. इसने विकास और राज्य द्वारा पूंजी निवेश में पहाड़ और मैदान के बीच की खाई को और भी चौड़ा कर दिया है. यही नहीं राज्य विधानसभा और लोकसभा में प्रतिनिधित्व के मामले में भी यह खाई और चौड़ी होती जा रही है. भविष्य में होने वाले चुनाव क्षेत्रों के परिसीमन के बाद उत्तराखंड विधान सभा में पहाड़ मैदान का अनुपात क्रमशः 35-65 तक पहुंच सकता है.
उत्तराखंड में भूमि संकट
उत्तराखंड राज्य का गठन हुए 19 वर्ष होने जा रहे हैं. इन 19 वर्षों में अब तक हमारे पास राज्य की भूमि संबंधी सही आंकड़े मौजूद नहीं हैं. जिन अनुमानित आंकड़ों के आधार पर हमारी सरकार और विशेषज्ञ योजनाएं बना रहे हैं वे कतई विश्वसनीय नहीं हैं. ये आंकड़े सन् 1958-64 के बीच हुए अंतिम बंदोबस्त के हैं. तब से अब तक इन साठ वर्षों में मानव जनित कृत्यों और प्राकृतिक आपदाओं ने यहाँ की भोगोलिक व भूमि संरचना में काफी बदलाव कर दिया है.
राज्य निर्माण के समय बताए गए आंकड़ों के अनुसार हमारा राज्य लम्बाई में पूरब से पश्चिम 358 किमी, चौड़ाई में उत्तर से दक्षिण 320 किमी है. कुल क्षेत्रफल 53483 वर्गमील और कुल भूमि का रकबा 5592361 हैक्टेयर है. इसका 88 प्रतिशत भू-भाग पर्वतीय व 12 प्रतिशत भू-भाग मैदानी है. राज्य की भूमि के कुल रकबे में से 3498447 हेक्टेयर भूमि में वन थे. कृषि भूमि मात्र 831225 हेक्टेयर थी. इसके अलावा बेनाप-बंजर 1015041 हेक्टेयर, ऊसर तथा अयोग्य श्रेणी 294756 हेक्टेयर है. इस तरह अगर देखें तो नवम्बर 2000 में उत्तराखंड की कुल भूमि का 63 प्रतिशत वन, 14 प्रतिशत कृषि, 18 प्रतिशत बेनाप-बंजर और 5 प्रतिशत बेकार (अयोग्य) भूमि थी.
अगर पहाड़ में कृषि भूमि के आंकड़ों पर नजर डालें तो सन् 1823 के बंदोबस्त के समय पहाड़ में 20 प्रतिशत भूमि पर खेती होती थी. मगर सन् 1865 में अंग्रेजों द्वारा वन विभाग का गठन करने और वन कानूनों को लागू करने के बाद किसानों के हाथ से जमीनों के छिनने का सिलसिला शुरू हो गया था. सन् 1958 के अंतिम बंदोबस्त के समय उत्तराखंड में (हरिद्वार को छोड़कर) मात्र 9 प्रतिशत कृषि भूमि ही बची थी. ताजे अनुमान के अनुसार राज्य बनने के बाद इन 19 वर्षों में राज्य की कृषि भूमि में से 1 लाख हैक्टेयर से ज्यादा भूमि कृषि से बाहर निकल चुकी है. गौर करने लायक बात है कि इस दौरान गरीब व सीमांत किसानों की जमीनें ही मुख्य रूप से खेती से बाहर निकली है.
देश भर में जमीन बांटने वाली सरकारों ने हड़पी पहाड़ के किसानों की जमीन
आजादी के बाद इन सत्तर वर्षों में सरकार विकास और योजनाओं के नाम पर पहाड़ के किसानों की जमीनें लूटने में लगी है. पंचायत भवनों, जन मिलन केन्द्रों और सामुदायिक भवनों के नाम पर ही सरकार किसानों की 1 प्रतिशत जमीन छीन चुकी है. इसी तरह स्कूल, कालेज, उच्च व तकनीकी शिक्षा संस्थानों, स्वास्थ्य केन्द्रों–अस्पतालों, क्रीड़ा स्थलों आदि के लिए किसानों की कुल कृषि भूमि का लगभग 7 प्रतिशत से ज्यादा जमीनें सरकार के खाते में निशुल्क जा चुकी हैं. इन साठ वर्षों में हमारे शहरों-कस्बों व सड़कों का भी 2 गुना से 200 गुना तक विस्तार कृषि भूमि में ही हुआ है. ऊर्जा प्रदेश के नाम पर हमारी सबसे उपजाऊ नदी घाटी की जमीनों को 558 जल विद्युत परियोजनाओं की भेंट चढ़ाया जा रहा है. अकेले टिहरी बाँध ही पहाड़ की कुल कृषि भूमि का 1.5 प्रतिशत हिस्सा निगल गया. इसके अलावा 17 राष्ट्रीय पार्कों व वन विहारों से सरकार सैकड़ों गावों को उनकी जमीनों से बेदखल करने की तैयारी कर रही है.
यानी जिन सरकारों ने भूमिहीनों–आवासहीनों और गरीब किसानों को जमीनें बाटनी थी, वही सरकारें विकास की कीमत वसूली के रूप में गरीब किसानों की जमीनें निशुल्क लेकर उन्हें भूमिहीन बनाती गई. इससे पहाड़ का कृषि क्षेत्र लगातार घटता जा रहा है. सबसे खतरनाक बात तो यह है कि जिन सरकारी भवनों व योजनाओं के लिए पहाड़ के गरीब किसानों की खेती की जमीनें निशुल्क ली गई, उनमें से कुछ को सरकार पीपीपी मोड के नाम पर पूंजीपतियों को सौंपती जा रही है. हमारी गौचर और पनघट की जमीनों के सौदे सरकारें देहरादून में बैठ कर कर रही हैं, जिसकी जानकारी किसानों को जमीनों पर पूंजीपतियों के बलात कब्जे के बाद मिलती है. आज पहाड़ में भूमि के कुल क्षेत्रफल का 6 प्रतिशत के करीब ही कृषि भूमि बची है.
प्राकृतिक आपदा से बदला भूगोल
इसी दौरान प्राकृतिक आपदा ने भी पहाड़ के भूगोल व भूमि संरचना को काफी बदल दिया है. सन् 2006 तक 233 गाँव पूरी तरह तबाह होकर पुनर्वास की बाट जोह रहे थे, इसके बाद पूरी तरह तबाह हुए गाँवों का इस लिस्ट में जुड़ना अभी बाकी है. इसके अलावा पहाड़ के ज्यादातर गांवों की कुछ न कुछ कृषि भूमि प्राकृतिक आपदा की भेंट चढ़ी है. ऐसी स्थिति में जमीन के पुराने आंकड़ों को दोहराते रहने का अब कोई औचित्य नहीं रह गया है.
उत्तराखंड में 80 प्रतिशत किसान भूमिहीन की श्रेणी में
सन् 2000 के आंकड़ों पर नजर डालने से पता चलता है कि राज्य की कुल 831225 हेक्टेयर कृषि भूमि 854980 परिवारों के नाम दर्ज थी. इनमें 5 एकड़ से 10 एकड़, 10 एकड़ से 25 एकड़ और 25 एकड़ से ऊपर की तीनों श्रेणियों की जोतों की संख्या 108883 थी. इन 108883 परिवारों के नाम 402422 हेक्टेयर कृषि भूमि दर्ज थी. यानी राज्य की कुल कृषि भूमि का लगभग आधा भाग. बाकी पांच एकड़ से कम जोत वाले 747117 परिवारों के नाम मात्र 428803 हेक्टेयर भूमि दर्ज थी. उक्त आंकड़े दर्शाते हैं कि किस तरह राज्य के लगभग 12 प्रतिशत किसान परिवारों के कब्जे में राज्य की आधी कृषि भूमि थी और लगभग 80 प्रतिशत कृषक आबादी भूमिहीन की श्रेणी में पंहुच चुकी थी.
उत्तराखंड में भूमि सम्बन्धी कानून और उनका इतिहास
अंग्रेजी राज में भू कानून – सन् 1815 में कुमाऊँ गढ़वाल पर कब्जा करने के बाद अंग्रेजों ने पहाड़ की भू राजस्व व्यवस्था से कोई बड़ी छेड़छाड़ नहीं की. 1816 में उन्होंने यहाँ पुलिस, भूलेख और भू राजस्व कि व्यवस्था के लिए 16 पटवारी पदों का गठन किया. पर भू राजस्व वसूली के लिए पहले से चली आ रही मालगुजार, थोबदार और पधान की व्यवस्था को बनाए रखा. उन्हें यहाँ से ज्यादा राजस्व की उम्मीद नहीं थी. पर अपने अनुकूल की जलवायु पाकर वे इसे अपना आश्रय स्थल बनाना चाहते थे. इस लिए उन्होंने राजस्व व भू व्यवस्था को पहले की तरह ही रखा. हां यहाँ के वनों का व्यावसायिक उपयोग करने के लिए उन्होंने योजना बनाई. सन् 1865 में सबसे पहले वन विभाग का गठन कर अंग्रेजों ने वनों को सरकारी वन घोषित किया. इससे यहाँ के किसानों में उपजे असंतोष के बाद अंग्रेजों ने संयुक्त प्रांत में अपने अधीन के पर्वतीय क्षेत्र के लिए सन् 1874 में “शिड्यूल डिस्ट्रिक्ट एक्ट” बनाया था. इसके तहत पर्वतीय क्षेत्र के लोगों को एक विशेष श्रेणी देकर कई सहूलियतें भी दी जाती थी.
सन् 1931 में लागू “पंचायती वन नियमावली” को भी अंग्रेजों ने सन् 1927 में बन चुके वन कानून से बाहर “शिड्यूल डिस्ट्रिक्ट एक्ट” के अधीन रखा, जिसके कारण हमारी वन पंचायतें वन कानून के दायरे से बाहर रही. इसके अलावा सरकारी वनों से गांव वालों को घास व चारागाह की छूट के साथ वर्ष में एक पेड़ “हक” के रूप में दिया गया. सन् 1893 में अंग्रेजों ने भूमि अधिग्रहण कानून के साथ पहाड़ की बेनाप–बंजर भूमि को “रक्षित वन भूमि” घोषित करने के लिए एक शासनादेश जारी किया था. मगर पहाड़ के किसानों के भारी विरोध के बाद उन्हें “गवर्नमेंट ग्रान्ड्स एक्ट 1895” लाना पड़ा जिसके तहत कमीश्नर को किसानों-भूमिहीनों के लिए जमीन के पट्टे आवंटित करने का अधिकार दिया गया. इसी तरह 1911 के वन बंदोबस्त के बाद वनों से किसानों के अधिकारों में और कटौती की गयी. इसके खिलाफ किसानों ने विरोध स्वरुप 1915-16 तक लगातार सरकारी वनों को आग के हवाले किया. पहाड़ के किसानों के इस व्यापक विरोध के बाद अंग्रेजों को पर्वतीय क्षेत्र में किसानों के लिए वन पंचायतें गठित करने पर मजबूर होना पड़ा था.
आजादी के बाद पहाड़ में भू कानून
“शिड्यूल डिस्ट्रिक्ट एक्ट” के तहत ही सन् 1948 में इस क्षेत्र के लिए “कुमाऊँ नयावाद एंड वेस्ट लेंड एक्ट” लाया गया जिसके तहत तब तक बेनाप भूमि में विस्तारित हो चुकी आबादी व कृषि क्षेत्र को कानूनी मान्यता दी गई. यह एक्ट 1973 में तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार ने निरस्त कर दिया और इसकी जगह पर “गवर्नमेंट ग्रांट्स एक्ट 1895” लागू कर जिलाधिकारियों को बेनाप भूमि के पट्टे देने का अधिकार दे दिया. पर पट्टे पर दी गई भूमि का स्वामित्व राज्य सरकार का ही रहा. बाद में सन् 1976 में नयी वन पंचायत नियमावली लाकर वन पंचायतों को 1927 के वन कानून के मातहत ला दिया गया. सरकार के इस कदम का किसानों ने विरोध किया.
कूजा एक्ट के जरिए पहाड़ की खेती पर बड़ा हमला
आजादी के बाद हुए एकमात्र बंदोबस्त के बीच सन् 1960 में ही उत्तर प्रदेश सरकार ने तत्कालीन पर्वतीय आठ जिलों के लिए अलग से “कुमाऊँ उत्तराखंड जमींदारी विनास एवं भूमि सुधार कानून” ( कूजा एक्ट ) बनाकर लागू कर दिया था. उत्तर प्रदेश जमींदारी विनास एवं भूमि व्यवस्था कानून में पंचायतों को बेनाप–बंजर, परती–चरागाह, पनघट–पोखर, तालाब–नदी आदि जमीनों के प्रबंध व वितरण का अधिकार दिया गया था. यह अधिकार देश के अन्य राज्यों में भी पंचायतों को हासिल है. ये जमीनें पंचायतों के नाम दर्ज होती हैं और ग्राम पंचायतें अपनी “भूमि प्रवंध कमेटी” के माध्यम से इस भूमि का प्रवंध व जरूरत मंदों में वितरण करती हैं. मगर कूजा एक्ट से इस प्रावधान को साजिशन हटा दिया गया और पहाड़ की ग्राम पंचायतों को इस भूमि के प्रवंध व वितरण का अधिकार नहीं दिया गया. यही कारण है कि पहाड़ की ग्राम पंचायतों में भूमि प्रवंध कमेटी की व्यवस्था नहीं है. नतीजे के तौर पर इन पचास वर्षों में जहाँ अन्य राज्यों में कृषि क्षेत्र का काफी विस्तार हुआ वहीँ “कूजा एक्ट” के माध्यम से इन पर्वतीय जिलों में कृषि क्षेत्र के विस्तार पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगा दिया गया. यही नहीं पर्वतीय क्षेत्रों के लिए हर विकास कार्य में जैसे स्कूल, कालेज, अस्पताल, तकनीकी संस्थान, स्टेडियम, पंचायती भवन आदि के लिए किसानों की नाप भूमि निशुल्क सरकार को देने की शर्तें भी लगा दी गई.
उत्तराखंड राज्य जिसका अपना भू कानून नहीं
शायद उत्तराखंड देश का ऐसा पहला राज्य होगा जिसका अपना कोई एक भूमि सुधार कानून नहीं है. राज्य बनने के 19 वर्ष हो जाने के बाद भी हमारी सरकारें राज्य में एक नया भूमि सुधार कानून बनाने के प्रति कहीं से भी चिंतित नहीं दिख रही हैं. अभी भी हमारे राज्य में “उत्तर प्रदेश जमींदारी विनास एवं भूमि व्यवस्था कानून” ही लागू है. पर्वतीय क्षेत्र के जिलों में इसके साथ ही सन् 1960 में बना “कुमाऊँ उत्तराखंड जमींदारी विनास एवं भूमि सुधार कानून” (कूजा एक्ट) भी लागू है. इस तरह प्रदेश के अन्दर पहाड़ी क्षेत्र के लिए अलग–अलग दो भूमि सुधार कानून लागू हैं जिन्हें पूर्ववर्ती उत्तर प्रदेश सरकार ने बनाया था.
राज्य बनने के बाद भू कानूनों में बदलाव - उत्तराखंड जब बना था, तब बाहरी लोगों द्वारा भूमि खरीदने की आशंका को देखते हुए भाजपा सरकार ने ही 2002 में हिमाचल के भूमि कानून के अनुसार अध्यादेश पेश किया था. बाद में तिवारी सरकार द्वारा गठित एक कमेटी ने उस अध्यादेश में सम्मिलित प्रावधानों की समीक्षा कर, उसमें जुड़े कुछ कठोर नियमों को सरल कर दिया था. इसके कारण उत्तराखंड के शहरी क्षेत्रों में बेरोकटोक भूमि व्यापार का धंधा चल निकला. इसमें तिवारी सरकार ने एक व्यवस्था की जिसके अनुसार ग्रामीण क्षेत्र में जो व्यक्ति मूल अधिनियम की धारा 129 के तहत सन् 2003 से पूर्व जमीन का खातेदार न हो, वह बिना अनुमति के 500 वर्गमीटर से अधिक जमीन नहीं खरीद सकता है. खंडूरी सरकार के आने पर इसकी सीमा घटा कर 250 वर्गमीटर तय की गयी. 250 वर्ग मीटर से अधिक की खरीद न करने के आदेश को उच्च न्यायालय से लेकर उच्चतम न्यायालय तक में चुनौती दी गयी थी, उच्चतम न्यायालय ने 250 वर्ग मीटर तक भूमि सीमा को सही माना था. न्यायालय के इसी आदेश के खिलाफ भाजपा की त्रिवेन्द्र सरकार ने विधानसभा में भूमि खरीद की सीमा पर लगी लगाम हटायी है.
अब तो भू माफिया की सरकार
हाल में उत्तराखंड की त्रिवेन्द्र रावत के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार ने वहाँ लागू “उत्तर प्रदेश जंमीदारी विनाश एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम 1950” में एक बड़ा बदलाव किया है. इस कानून के अंर्तगत धारा 143 जो भू उपयोग से सम्बंधित है, में बदलाव कर कृषि भूमि को गैर कृषि के लिए बिना भू उपयोग बदले इस्तेमाल करने की इजाजत दे दी गयी है. इस संशोधन को इस धारा के 'क' में सम्मिलित किया गया है. इस संशोधन से कृषकों की उपज देने वाली जमीन अन्य उद्योग धंधों को खोलने के लिए इस्तेमाल की जा सकती है. इसी तरह धारा 154 जो पहले प्रदेश में साढ़े बारह एकड़ से अधिक कृषि भूमि को खरीदने से रोकता है, अब इसमें संशोधन करके उप धारा-2 जोडऩे से पर्वतीय क्षेत्र में उद्योग के लिए भूमि की खरीद की सीमा हटा दी गयी है. इन्वेस्टर समिट से पहले त्रिवेन्द्र सरकार ने नई पर्यटन नीति बनाकर पर्यटन को उद्योग का दर्जा दिया है. अब उत्तराखंड में होटल, रिजॉर्ट, रेस्टोरेंट, मनोरंजन पार्क, एडवेंचर, योग केंद्र, आरोग्य केंद्र, कन्वेंशन सेंटर, स्पा, आयुर्वेद, प्राकृतिक चिकित्सा और हस्तशिल्प आदि कुल 28 गतिविधियों को पर्यटन उद्योग की श्रेणी में शामिल किया गया है. इतना ही नहीं चिकित्सा, स्वास्थ्य और शिक्षा भी 'औद्योगिक प्रायोजन' में शामिल हैं. ऐसे में इन तमाम गतिविधियों के लिए ली जा रही जमीन औद्योगिक प्रायोजन में जोड़ी जाएगी. इस तरह वर्तमान भाजपा सरकार द्वारा पहाड़ की कृषि भूमि की भारी लूट के दरवाजे खोल दिए गए हैं.
उत्तराखंड में भूमि बंदोबस्त
अंग्रेजों से पहले भूमि बंदोबस्त
अगर हम इतिहास पर नजर दौड़ाएं तो उत्तराखंड में पहला भूमि बन्दोबस्त राजा रतन चंद ने करवाया था. रतन चंद राजा भारती चंद (1437-50) का पुत्र था. 1790 में चंदों को हरा कर गोरखाओं ने कुमाऊं पर कब्जा किया और फिर उनके राज में 1791 में जोग मल्ल द्वारा दूसरा भूमि बन्दोबस्त कराया. गोरखा राज में सन् 1812 में भी भूमि बंदोबस्त कराए जाने का जिक्र कहीं-कहीं मिलता है.
अंग्रजी राज में हुए 11 भूमि बंदोबस्त
अंग्रेजों ने यहाँ अपने 132 वर्षों के शासनकाल में 11 बार भूमि बंदोबस्त कराया. सन् 1815 में कुमाऊँ पर अंग्रेजों का अधिपत्य हो गया था. पहला भूमि बंदोबस्त अंग्रेज शासक ई. गार्डनर ने सन् 1815–16 में ही कराया था. उसके बाद कमिश्नर ट्रेल ने 1817 में दूसरा, 1818 में तीसरा, और 1820 में चौथा भूमि बंदोबस्त कराया था. सन् 1823 में पांचवां भूमि बंदोबस्त हुआ. तब सम्वत 1880 होने के कारण इस बंदोबस्त को “अस्सी साला बंदोबस्त” के नाम से जाना जाता है. इस बंदोबस्त में पहली बार जमीन की नाप जोख के साथ गाँवों की सीमायें भी तय कर दी गई. आज भी दो गाँवों के बीच सीमा सम्बन्धी विवाद होने पर अस्सी साला बंदोबस्त के रिकार्ड से मदद ली जाती है.
इसके बाद 1829 में यहाँ छटा भूमि बंदोबस्त हुआ. सन् 1830–31 में प्राकृतिक आपदा से हुए भारी भूमि कटाव के बाद जनता की मांग पर सन् 1832 में सातवाँ बंदोबस्त भी कमिश्नर ट्रेल द्वारा ही कराया गया. ट्रेल के बाद कुमाऊँ के कमिश्नर बने कर्नल गार्डनर ने सन् 1834 में आठवां भूमि बंदोबस्त कराया. इनके बाद आये कमिश्नर बेटन ने सन् 1842 से 1846 के बीच नवां भूमि बंदोबस्त कराया. इस बंदोबस्त में आसामी वार फांट बनी और इन फांटों में हिस्सेदारों व खायकरों के हिस्से निर्धारित कर दिए गए. इस बंदोबस्त में भी गाँव की सीमाओं को लिपिबद्ध किया गया जिसे चकनामे के नाम से जाना जाता है. इसमें पधान, मालगुजार, सयाना व थोकदारों के नए दस्तूर भी कायम किये गए.
बेकट ने कराया वैज्ञानिक भूमि बंदोबस्त - सन् 1863 से 1873 के बीच कमिश्नर बेकट द्वारा दसवां बंदोबस्त कराया गया. इस बंदोबस्त में प्रत्येक गाँव के नक़्शे, खसरे, पर्चे बनाए गए. जमीन को तलाऊँ, उपराऊँ, अब्बल, दोयम, इजरान व कटील जैसी श्रेणियों में बांटा गया. बेकट ने कास्त भूमि के अलावा ऐसी भूमि को भी नपवाया जो भविष्य में कास्त के काम आ सकती हो. इस भूमि को बेपड़त भूमि या कृषि योग्य बंजर भूमि कहा गया. यह कुमाऊँ का पहला वैज्ञानिक भूमि बंदोबस्त था. यह बिकट बंदोबस्त के नाम से प्रचलित हुआ. इसके बाद 1899 से 1902 के बीच कमीश्नर गूज ने ग्यारहवां बंदोबस्त कराया. आजादी के आंदोलन तेज होते जाने के कारण अंग्रेज फिर बंदोबस्त नहीं करा पाए. इस तरह अगर हम देखें तो अंग्रेजों ने अपने शासन काल में उत्तराखंड में औसतन 12 वर्ष में एक भूमि बंदोबस्त कराया. हालांकि उन्होंने यहाँ के ग्रामीण समाज में मौजूद सामंती भूमि संबंधों से कोई छेड़छाड़ किये बिना ही ये बंदोबस्त किये.
आजाद भारत में मात्र 1 भूमि बंदोबस्त
आजादी के बाद सन् 1956 में जमींदारी उन्मूलन कानून पूरे देश में लागू हुए. इसके साथ ही नया भूमि बंदोबस्त शुरू हुआ. उत्तराखंड में यह कार्य सन् 1958 से 1964 के बीच हुआ. हालांकि इस बंदोबस्त में पक्के खायकारों-सिरतानों को यहाँ भूमि अधिकार दिए गए और मालगुजार–थोबदार–पधान जैसी पुरानी ब्यवस्थाओं को खत्म कर दिया गया. मगर इससे भी भूमि संबंधों में कोई गुणात्मक बदलाव नहीं आया. इस दौर में भूमि बंदोबस्त पर यहाँ एक लोकगीत जन–जन में काफी लोकप्रिय हुआ जिसके बोल थे – “दिन में हैं छा खाना पूरी रात रबड़ घुस”. यानी कि अमीन दिन में तो किसानों के सामने पेंसिल से उनकी जमीन की नपाई की खानापूरी करता था मगर रात को मालगुजार–थोबदार के घर जाकर उसे रबर से मिटा कर मालगुजार-थोबदार के नाम चढ़ा देता था. नतीजतन इस बंदोबस्त के बाद भी जमीन के बड़े हिस्से पर इन पुराने मालगुजार–थोबदारों का ही कब्जा बना रहा और ग्रामीण दस्तकारी से जुड़ा यहाँ के शिल्पकारों (अनुसूचित जाति) की बहुसंख्या पूरी तरह भूमि पर अधिकार से वंचित कर दी गई.
पहाड़ में कलमी बटवारा नहीं गोल खाता व्यवस्था जारी
इस बंदोबस्त में भी पहाड़ में प्रचलित गोल खाता व्यवस्था को समाप्त कर कलमी बटवारा नहीं किया गया. जिसके कारण आज भी पहाड़ के हर गाँव में एक पूरी बिरादरी या खानदान का संयुक्त भूमि खाता है जिसे गोल खाता के नाम से जाना जाता है. इस गोल खाते में प्रत्येक खातेदार बटवारे में मिली अपने हिस्से की भूमि का स्वतंत्र खातेदार न होकर गोल खाते का एक हिस्सेदार दर्ज रहता है. अगर किसी बाहरी व्यक्ति ने उस खाते की जमीन का कोई टुकड़ा खरीदा तो वह भी उस खानदान के गोल खाते का एक हिस्सेदार दर्ज हो जाता है. इस व्यवस्था ने पहाड़ के भूमि संबंधों में कई समस्याओं को जन्म दिया है.
नया भूमि बंदोबस्त जरूरी – सरकार द्वारा अगले भूमि बंदोबस्त के लिए 40 वर्ष की सीमा निर्धारित की गई थी. उसके अनुसार सन् 2004 में नया भूमि बंदोबस्त होना निश्चित था, मगर अलग राज्य बन जाने के बाद भी हमारी सरकारें इसके लिए तैयार नहीं हैं. राज्य विधानसभा में एक सवाल के जवाब में तिवारी सरकार ने बताया था कि कूजा एक्ट के कारण राज्य में नया भूमि बंदोबस्त नहीं हो सकता है. नया भूमि बंदोबस्त किये बिना न तो राज्य में भूमि की सही स्थिति का आकलन किया जा सकता है और न ही भूमि व कृषि को लेकर कोई सही नीति ही बनाई जा सकती है. इस लिए राज्य में तत्काल नया भूमि बंदोबस्त कर इस गोल खाता व्यवस्था को खत्म किया जाना चाहिए.
लीज खत्म कर चुके फार्मों और सीलिंग से फालतू जमीनें
राज्य में लीज अवधि खत्म कर चुके कृषि फार्मों और सीलिंग से फालतू घोषित लाखों एकड़ कृषि भूमि पड़ी है. सत्तर-अस्सी के दशक में तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार ने नैनीताल जिले की तराई में सीलिंग से फालतू जमीन की पहचान के लिए “मंगल देव विषारद समिति” का गठन किया था. इस समिति की रिपोर्ट के अनुसार उस वक्त तराई में सीलिंग से फालतू व ग्राम समाज की लगभग तीन लाख एकड़ जमीन थी. इन सभी जमीनों पर यहाँ के बड़े फार्मरों व भूमि चोरों का कब्जा बना हुआ था. राज्य की राजनीति और कांग्रेस–भाजपा सहित अन्य प्रमुख दलों में इन भूमिचोरों के प्रभुत्व के कारण आज तक हर सरकार इन्हें संरक्षण देती आई है. इधर जनता के दबाव में सरकार ने लीज अवधि खत्म कर चुके कुछ फार्मों की जमीनें वापस तो ली हैं, परन्तु सीलिंग से निकली भूमि के आवंटन के लिय बने नियमों के विपरीत इन जमीनों का आवंटन किया जा रहा है. हमने राज्य में लीज अवधि खत्म कर चुके फार्मों व सीलिंग से निकली सभी जमीनों को तत्काल जप्त करने और इन जमीनों का राज्य के आपदा पीड़ितों व भूमिहीनों-अनुसूचित जातियों में वितरण की मांग को पुरजोर तरीके से उठाया है.
नया भूमि सुधार कानून लाने की जरूरत
राज्य में एक नया भूमि सुधार कानून बनाने के मांग हम लगातार उठाते आये हैं. भयानक भूमि संकट से जूझ रहे इस राज्य में कृषि भूमि के गैर कृषि उपयोग पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगाने, कृषि क्षेत्र के विस्तार के लिए भूमि चिन्हित कर कम से कम 40 प्रतिशत भूमि कृषि और उससे जुड़े सहायक रोजगार के लिए सुरक्षित रखने की जरूरत है. इस कानून में पहाड़ की समस्त बेनाप और कृषि योग्य बंजर जमीन को ग्राम पंचायतों के नाम दर्ज कर उसके प्रवंध व वितरण का अधिकार ग्राम पंचायतों को देने के साथ ही कृषि पर निर्भर हर परिवार को कम से कम 62 नाली जमीन उपलब्ध कराने का प्रावधान शामिल हो. आज की परिस्थियों को ध्यान में रख कर भूमि की सीलिंग सीमा को घटा कर उपरोक्त भूमि असुंतलन को ठीक करने की जरूरत है. इसके साथ ही हिमांचल प्रदेश की तर्ज पर बाहरी लोगों के कृषि भूमि खरीदने पर रोक लगाने की जरूरत है. नए भूमि सुधार कानून में इन बुनियादी सवालों को प्रमुखता मिलनी चाहिए.
राज्य बनने के बाद यहाँ सत्ताशीन हुई भाजपा–कांग्रेस की सरकारें कारपोरेट घरानों, बड़े पूंजीपतियों, भू-माफिया व बिल्डरों के हित में एक के बाद एक भू–अध्यादेश लाती गई. मगर राज्य की 75 प्रतिशत ग्रामीण आबादी की खुशहाली के लिए नया भूमि सुधार कानून बनाना उनके एजंडे में कभी नहीं आया. किसान विरोधी “कूजा एक्ट” का खात्मा कर पूरे राज्य के लिए एक नया भूमि सुधार कानून लाना उत्तराखंड राज्य सरकार की पहली प्राथमिकता होनी चाहिए .
भाग – दो
कृषि क्षेत्र की उपेक्षा से बढ़ता पलायन
खेती, पशुपालन और ग्रामीण दस्तकारी पर लंबे समय तक आत्मनिर्भर रही उत्तराखंड की अर्थव्यवस्था मूलतः वनों पर आश्रित थी. मगर अंग्रेजों और बाद में हमारे शासकों द्वारा वनों से किसानों के अधिकार खत्म करते जाने के चलते इस अर्थव्यवस्था ने दम तोड़ना शुरू कर दिया. कृषि क्षेत्र के विस्तार पर लगी रोक और बढ़ती कृषक आबादी के बीच लगातार बंटती जमीन ने पर्वतीय क्षेत्र के किसानों को भूमिहीन की स्थिति में पहुंचा दिया. आज पहाड़ में औसतन प्रति परिवार आधा एकड़ कृषि भूमि ही किसानों के पास बची है. कृषक आबादी के भूमिहीनता की स्थिति में पहुंचते जाने और रोजगार के कोई नए क्षेत्र विकसित न होने के कारण ग्रामीणों के सामने रोटी के लिए पलायन ही एकमात्र रास्ता बचा रह गया.
उत्तराखंड राज्य बनने के बाद भी पहाड़ की कृषि को रोजगारपरक बनाने के लिए एक ठोस नीति बनाने के बजाय भाजपा-कांग्रेस की सरकारों ने कृषि क्षेत्र पर हमले तेज किए. कृषि क्षेत्र के लिए आधारभूत ढांचागत सुविधाएँ उपलब्ध कराने, राज्य द्वारा कृषि में पूंजी निवेश को बढ़ावा देने की नीति के उलट ऊर्जा प्रदेश, इको ट्यूरिज्म और औद्योगिकीकरण के नाम पर किसानों की जमीनों को कारपोरेट घरानों और पूंजीपतियों के हवाले किया जा रहा है. कृषि क्षेत्र के विकास और राज्य की 75 प्रतिशत ग्रामीण आबादी की आजीविका की सुरक्षा के लिए जिन प्राथमिक कदमों को उठाने की राज्य सरकारों से उम्मीद थी वो उनके एजंडे से पूरी तरह गायब हैं. पहाड़ में पिछड़े किस्म के भूमि सम्बन्ध और अति पिछड़ी उत्पादन पद्धति में किसी तरह के बदलाव की कोई कोशिश नहीं की गई. इसके चलते खेती लगातार अलाभप्रद और अरुचिकर होती गई. राज्य बन जाने के बाद भी स्थितियों में कोई बदलाव आता न देख आज बड़े पैमाने पर किसान पलायन को मजबूर हो गए हैं.
अनिवार्य चकबंदी जरुरी
पहाड़ की खेती–किसानी को बचाने और कृषि को लाभप्रद बनाने के लिए चकबंदी एक अनिवार्य शर्त है. यहाँ की छोटी व बिखरी जोतें व्यवसायिक खेती की राह में सबसे बड़ा रोड़ा हैं. मुख्यतः महिलाओं के श्रम पर आधारित पहाड़ की यह खेती महिलाओं के सिर पर एक अलाभप्रद बोझ है. व्यवसायिक खेती की तरफ पहाड़ के किसानों को प्रोत्साहित करने, बोई गई फसल की सुरक्षा सुनिश्चित करने और किसानों खासकर महिलाओं के जाया हो रहे श्रम को लाभप्रद बनाने के लिए पहाड़ में चकबंदी जरुरी है. इसके साथ ही राज्य के मैदानी क्षेत्र में भी भू-माफिया, बड़े फार्मरों के कब्जे में पड़ी सीलिंग–ग्राम समाज व अनुसूचित जातियों-जनजातियों की जमीनों को बाहर निकालने के लिए भी चकबंदी जरुरी है. एक किसान संगठन के रूप में अखिल भारतीय किसान महासभा ने उत्तराखंड में चकबंदी के सवाल को एक राजनीतिक मुद्दा बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. हमने चकबंदी आंदोलन के प्रणेता गणेशसिंह गरीब और अन्य चकबंदी समर्थक समूहों से भी मुद्दा आधारित एकता स्थापित की है. इसी सब का नतीजा है कि आज उत्तराखंड की हर सरकार पहाड़ में स्वैच्छिक चकबंदी की बात कर रही है. हमें स्वैच्छिक चकबंदी के सरकारी नाटक का डट कर विरोध करना चाहिए और चकबंदी कानून को राज्य में लागू करते हुए अनिवार्य चकबंदी की मांग उठानी चाहिए.
कृषि उद्पादों का समर्थन मूल्य व सरकारी खरीद की गारंटी नहीं
अलग राज्य बनाने के बाद भी पर्वतीय कृषि उत्पादों का न तो राज्य सरकारों ने कोई न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित किया है और न ही उनकी खरीद की गारंटी की गई है. पूरे देश में और हमारे राज्य के मैदानी जिलों में भी सरकार द्वारा कृषि उत्पादों का न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित कर उसके खरीद की गारंटी के लिए सरकारी क्रय केन्द्र खोले जाते हैं. मगर पहाड़ के कृषि उत्पादों जैसे–चौलाई (रामदाना), राजमा, गहत, भट्ट, मडुआ, मॉस (उडद), मिर्च, हल्दी, मसाले, आलू, मूली, गडेरी, अदरक, माल्टा, संतरा, आम, आडू, खुमानी आदि का न तो राज्य सरकार ने कोई न्यूनतम समर्थन मूल्य तय किया है और न ही इसकी खरीद की गारंटी के लिए सरकारी क्रय केन्द्र खोले गए हैं.
पहाड़ के किसानों की राज्य सरकार द्वारा की जा रही इस पूर्ण अनदेखी के चलते यहाँ का किसान खेती के प्रति लगातार उदासीन और हतोत्साहित होता रहा है. कठिन जीवन स्थितियों और कठोर मेहनत के बल पर पहाड़ के किसानों द्वारा पैदा किये गए इन जैविक उत्पादों को कौड़ियों के भाव लुटाने के लिए उन्हें मजबूर किया जा रहा है. हमें सभी तरह के पर्वतीय कृषि उत्पादों का न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित करने और उसकी खरीद की गारंटी के लिए हर विकास खंड में चार–चार सरकारी क्रय केन्द्र खोलने की मांग करनी चाहिए.
जंगली जानवरों व आवारा पशुओं से फसलों की रक्षा का सवाल
जंगली जानवरों व आवारा पशुओं के आतंक ने आज पहाड़ व भावर के किसानों का जीना दुश्वार कर दिया है. पहाड़ के किसानों ने बन्दर, सूअर, सेही, हिरन और आवारा गायों द्वारा फसलों को चौपट कर देने के चलते बड़े पैमाने पर खेती को बंजर छोड़ दिया है. अपनी आजीविका के इस मुख्य साधन को जानवरों द्वारा चौपट कर देने के चलते पहाड़ से बड़े पैमाने पर किसानों का पलायन हो रहा है. भावर क्षेत्र में भी हाथी, नीलगाय व सूअर बड़े पैमाने पर किसानों की फसलों को नुकसान पहुंचा रहे हैं. इधर 15-20 वर्षों के अंदर पहाड़ में बंदरों-सूअरों की संख्या में भारी बृद्धि हुई है, बल्कि ये जानवर ज्यादा आक्रामक भी हुए हैं.
इसके साथ ही पूर्व भाजपा सरकार द्वारा राज्य में गो-रक्षा कानून लागू कर देने के बाद पहाड़ में गो वंश की बिक्री पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया गया है. हल-बैल पर निर्भर पहाड़ की खेती और किसानों की आय के सहायक रोजगार पशुपालन पर सरकार द्वारा किया गया यह बड़ा हमला था. गायों की बिक्री पर लगे इस प्रतिबन्ध के चलते किसानों ने गाय बैलों को पालना छोड़ दिया. इससे आवारा गायों के झुण्ड पूरे पहाड़ में फसलों को चौपट कर किसानों को तबाह कर रहे हैं. गौ रक्षा कानून के कारण पिछले 15 वर्षों में पहाड़ में हमारे गौवंश में 65 प्रतिशत की कमी आ गयी है. हमने फसलों की सुरक्षा के लिए कृषि भूमि की चारदिवारी और उसके ऊपर सौर ऊर्जा करेंट की व्यवस्था करने और गो–वंश की बिक्री से प्रतिबन्ध हटाने के लिए गो–रक्षा कानून हटाने की मांग लगातार की है. मगर राज्य की किसान विरोधी भाजपा-कांग्रेस सरकारों ने इसे अब तक अनसुना किया हुआ है.
बृक्ष संरक्षण कानून में बदलाव कर नाप भूमि में बृक्षों के व्यवसायिक उपयोग का अधिकार मिले
पर्वतीय जिलों में किसानों का खेती से विमुख होने का एक और कारण है वहाँ बृक्षों के व्यवसायिक उत्पादन पर रोक का होना. बृक्ष संरक्षण कानून 1976 के प्रावधानों के अनुसार पहाड़ का किसान अपने नाप खेतों में भी बृक्षों का व्यावसायिक उत्पादन नहीं कर सकता है. यहाँ के किसानों को अपनी जमीन में उगे पेड़ों को काटने और बेचने का अधिकार नहीं है. पूर्णत: वर्षा जल पर निर्भर 90 प्रतिशत असिंचित पहाड़ की खेती का लगभग आधा भाग आज बंजर पड़ा है. इस बंजर कृषि भूमि में चीड़ सहित कई प्रजाति के पेड़ उग आये हैं और उसने जंगल का रूप ले लिया है. पूर्णत: पलायन कर चुके परिवारों की जमीनों का भी यही हाल है. मगर बृक्ष संरक्षण कानून पहाड़ के किसानों को इन बृक्षों के व्यवसायिक उपयोग की इजाजत नहीं देता है. इससे पहाड़ के किसान को भारी आर्थिक हानि उठानी पड़ रही है. हमने इस सवाल को बार–बार हर मंच से उठाया कि जब पूरे देश व उत्तराखंड के मैदानी जिलों में भी किसानों को अपने खेतों में बृक्षों का व्यवसायिक उत्पादन का अधिकार है तो पहाड़ के किसान को इससे वंचित क्यों किया जा रहा है? मगर राज्य के सत्ताधारियों को पहाड़ के किसानों की इस पीड़ा से कुछ भी लेना–देना नहीं है . अगर पहाड़ के किसानों को अपने नाप खेतों में बृक्षों के व्यवसायिक उत्पादन का अधिकार दे दिया जाय तो खेती को उनके लिए आकर्षक जरिया बनाया जा सकता है.
वन पंचायतों में जनता के परम्परागत अधिकार बहाल हों
उत्तराखंड राज्य बनने के बाद भाजपा-कांग्रेस की राज्य सरकारों ने नीतियां बदलने में सबसे ज्यादा जोर कहीं दिया तो वो भू कानून के अलावा वन पंचायत नियमावली थी. अलग राज्य बनते ही राज्य सरकार नई वन पंचायत नियमावली 2001 लेकर आ गई जो वन पंचायत नियमावली 1976 को संशोधित कर बनाई गई थी. पहाड़ के किसान 1976 से ही संशोधित वन पंचायत नियमावली के खिलाफ आवाज उठा रहे थे, क्योंकि उसमें 1931 की वन पंचायत नियमावली में जनता को मिले परम्परागत अधिकारों को छीन कर वन पंचायतों को वन कानूनों के अधीन कर दिया गया था. मगर उत्तराखंड की भाजपा सरकार ने जनता व किसानों की भावनाओं के खिलाफ जाकर 2001 की नियमावली में जनता के सभी बचे–खुचे अधिकार भी छीन लिए. इसका व्यापक विरोध होने पर राज्य की कांग्रेस सरकार वन पंचायत नियमावली 2005 लेकर आ गई. इसमें न सिर्फ वन पंचायत नियमावली 2001 के सभी प्रावधान मौजूद थे बल्कि जेएफएम नियमावली को भी इसमें जोड़ दिया गया जिसकी खिलाफत पूरे राज्य में हुई थी. हम वन पंचायत नियमावली 2005 को वापस लेने, वन पंचायतों को वन कानून के दायरे से बहार करने, वन पंचायतों के लिए एक अलग अधिनियम लाने और तब तक वन पंचायत नियमावली 1931 को लागू करने की मांग पर संघर्ष कर रहे हैं.
मोदी सरकार लाई वन कानूनों में खतरनाक संशोधन
मोदी सरकार ने भारतीय वन अधिनियम 1927 में संशोधन का एक प्रारूप मार्च 2019 में सभी प्रदेशों के वन प्रमुखों को जारी किया है. इस प्रस्तावित संशोधित प्रारूप में घोर दमनकारी प्रावधान हैं जो भारतीय संविधान और आदिवासियों तथा वनों पर आश्रित अन्य समुदायों के परम्परागत अधिकारों पर आघात है. इस प्रारूप में वन अधिकारियों की पुलिसिया और अर्ध-न्यायिक ताक़तें बढ़ाई गई हैं. उन्हें संदेह के आधार पर गोली चलाने की इजाज़त है और ऐसा करने वाले अफ़सर के ख़िलाफ़ कोई आपराधिक कार्रवाही नहीं की जायेगी, जब तक कि राज्य सरकार द्वारा स्थापित कोई संस्था की जाँच ऐसी कार्यवाही की जरूरत को स्थापित न करे. इस प्रस्तावित प्रावधान की तुलना दमनकारी 'सशस्त्र सेना विशेष अधिकार कानून (आफ़सपा)' से की जा सकती है. इस संशोधन में वन अधिकारियों को जाँच करने, सम्पत्ति की तलाशी लेने और उसे ज़ब्त करने, ज़बरदस्ती गवाहों को हाज़िर करवाने आदि शक्तियों को और बढ़ा दिया गया है. मौजूदा क़ानून में औपनिवेशिक काल से चला आ रहा एक दमनकारी प्रावधान है जिसे यह प्रस्तावित प्रारूप नहीं हटाता है. इस प्रावधान के तहत वन में आग से क्षति पहुँचाने के आरोप में पूरे गाँव को सामूहिक दंड दिया जा सकता है. प्रस्तावित प्रारूप के अनुसार राज्य सरकार के अधिकारियों को लोगों के ख़िलाफ़ दर्ज केस वापस लेने का अधिकार नहीं रहेगा, ताकि वन विभाग के दमन और फ़र्ज़ी केस के ख़िलाफ़ स्थानीय जनता के प्रतिरोध असरदार न हो सकें. अब इस नए संशोधन में वन विभाग के रेंजर को थानेदार की शक्ति, डीएफओ को जज की शक्ति और कंजवेटर को सुप्रीम कोर्ट की शक्ति दी गयी है, जिसके फैसले की कहीं किसी अदालत में अपील नहीं हो सकती.
यह प्रारूप व्यावसायिक वानिकी के लिए रास्ता खोलते हुए 'उत्पादक वन' की नयी श्रेणी स्थापित करना चाहता है, जिसके तहत वनों को 'वनीकरण व वृक्षारोपण' के लिए निजी कंपनियों को सौंपा जा सकता है. यह प्रस्ताव बड़े ही चालाकी से हमारे वनों को कारपोरेट लूट के चारागाह में बदल देना चाहता है. जबकि इस प्रारूप के तहत यदि ग्रामवासी वन से संबंधित किसी लाभकारी योजना का लाभ उठा रहे हैं, तो उनके वन अधिकार समाप्त किये जा सकते हैं. वन भूमि में झूम खेती को बंद किया जा सकता है. यदि सरकार की दृष्टि में जरूरी हो तो वह स्थानीय निकायों के जंगल, पंचायती व निजी वनों को अपने अधिकार में ले सकती है. सरकार वन पंचायतों को यह कहकर रिजर्व फोरिस्ट घोषित कर सकती है कि ग्रामवासी उसका प्रवंध सही नहीं कर रहे हैं. यह प्रारूप परम्परा से चले आ रहे किसानों के अधिकार जैसे वन भूमि में पालतू जानवरों को चराने, घास, सूखी जलावन लकड़ी, गिरी पत्ती, घर की लिपाई की मिट्टी आदि लाने को वन अपराध घोषित कर रहा है. इसके लिए आरोपित पर 10 हजार से 1 लाख रुपए तक जुर्माना और 1 माह से एक साल तक की सजा का प्रावधान किया गया है. यदि रक्षित वन क्षेत्रों में वन कम हो जायें तो ग्रामवासियों के हक बंद किये जा सकते हैं. यह प्रारूप भारत के संविधान द्वारा प्रदत्त न्यायायिक व्यवस्था का खुला उलंघन का दस्तावेज है जो आरोप लगाने वाले को ही न्यायाधीश की कुर्षी पर बिठाता है. यह वनों के बीच या वनों पर आश्रित समुदायों की उनकी जमीनों और गांवों से जबरन बेदखली का दस्तावेज है. मोदी की पूर्व सरकार द्वारा मार्च 2019 में जारी वन कानून 1927 में संशोधन का यह प्रारूप पूरी तरह से जनविरोधी और भारत के वनों में कारपोरेट लूट के दरवाजे खोलने का दस्तावेज है. इसका चौतरफा जोरदार विरोध करने की जरूरत है.
मित्रों, कृषि क्षेत्र में उपरोक्त बुनियादी सवालों का समाधान किये बिना न तो राज्य की पर्वतीय कृषि को रोजगारपरक बनाया जा सकता है और न ही पहाड़ से हो रहे भारी पलायन पर रोक लग सकती है. उत्तराखंड में स्थापित राजनीतिक पार्टियों खासकर भाजपा-कांग्रेस के एजंडे में न तो ये बुनियादी सवाल मौजूद हैं और न ही उनके नेतृत्व की ऐसी कोई समझ है. हमारा संगठन अखिल भारतीय किसान महासभा राज्य के संतुलित विकास और जनता की बेहतरी के लिए वैकल्पिक नीतियों के साथ संघर्ष के मैदान में जुटे संगठनों और व्यक्तियों के साथ एक व्यापक संघर्षशील एकता की पक्षधर है. आप भी इस संघर्ष को आगे बढ़ाने और राज्य में एक नए राजनीतिक विकल्प के निर्माण के लिए इस मुहिम का हिस्सा बनेंगे ऐसी हमें आशा है.
क्रांतिकारी अभिवादन
(20 जुलाई 2019 को दिल्ली के प्रेस क्लब में “उत्तराखंड चिंतन” संस्था द्वारा आयोजित "के.एम. पांडे स्मृति व्याख्यान माला" कार्यक्रम में “अखिल भारतीय किसान महासभा” के राष्ट्रीय सचिव व “विप्लवी किसान संदेश” के संपादक कामरेड पुरुषोत्तम शर्मा का व्याख्यान)