जहां सिर्फ नाम सुनकर ही भूकंप आ जाता हो
चारु तिवारी
अल्मोड़ा जनपद का भिकियासैंण विकासखण्ड। यहां का भतरौजखान क्षेत्र आजकल चर्चा में है। सोशल मीडिया में प्रसारित एक पोस्टर के कारण। पोस्टर है पंचायत चुनाव का। पोस्टर में एक महिला प्रत्याशी ग्राम प्रधान का चुनाव लड़ रही हैं। इसमें क्या खास है? बहुत सारी महिलायें चुनाव लड़ रही है! खास यह है कि इस महिला का नाम है- श्रीमती फराह। पति का नाम है उस्मान। इस नाम से भूकंप आ गया है। पहाड़ दरकने लगा है। चारों तरफ शोर है कि पहाड़ में अब मुसलमान ही ग्राम प्रधान बनेंगे। 'आशंका' व्यक्त की जा रही है कि देवभूमि 'कलंकित' होने वाली है। धर्म और समाज की 'रक्षा' के लिये बड़े-बड़े प्रवचनों वाली पोस्ट पढ़ी-देखी जा सकती हैं। बहुत तरीके से बताया जा रहा है कि किस तरह से पूरा पहाड़ मुसलमानों की चपेट में आने वाला है। पिछले कई वर्षो से इस तरह की बातें फैलाई जा रही थी कि पहाड़ में मुसलामानों की संख्या में भारी इजाफा हुआ है। वे यहां के पूरे वातावरण को बिगाड़ रहे हैं। इस पंचायत चुनाव में श्रीमती फराह के नाम के साथ अब इस बात को सत्यापित करने की साजिश हो रही है। इन काल्पनिक खतरों से भाजपा और उन जैसी समझ वाले लोग पहाड़ विरोधी अपनी नीतियों पर उठने वाले विरोधी स्वरों को दबाना चाहती है। जिस गांव का यह पोस्टर है उस गांव का नाम है- दनपो। अल्मोड़ा जनपद के भिकियासैंण विकास खंड की दनपो ग्रामसभा के अन्दर ही भतरौजखान भी आता है। दनपो गांव में सदियों से मुसलमान रहते हैं। उत्तराखंड के अन्य गांवों की तरह। यहां उनकी पुश्तैनी खेती है। यहां के समाज से वे सदियों से जुड़े रहे हैं, या कह सकते हैं यहां की संस्कृति में रह-बसे हैं। हमारे मित्र और सामाजिक सरोकारों से जुड़े एडवोकेट चन्द्रशेखर करगेती इसी गांव के रहने वाले हैं। करगेती कहते हैं कि हमारे ग्राम सभा को एक तोक है रिंगाणी। यहीं मुस्लिम परिवार पीढ़ियों से बसे हैं। उन्होंने यहां की संस्कृति और भाषा को जिस तरह आत्मसात किया है वह अनूठा है। वे पहले हमारे गांवों में सुख-दुख में शामिल रहे हैं। एक परिवार था जब्बार भाई का। उन्होंने ही हमारे शादी-ब्याहों में मनोरंजन के लिये वाद्य बजाये। वे कहते हैं कि हमारे यहां जहां भी खान नाम की जगह मिलेगी वहां मुस्लिम अवश्य मिलेंगे। इन्हीं मुसलमानों की बहू है- फराह।
दनपो गांव के बहाने देश में फैलाये जा रहे उस सांप्रदायिक ऐजेंडे को समझा जा सकता है जो सदियों से एक-दूसरे का साथ रहे समाजों में सुनियोजित तरीके से दुश्मन बनाने पर उतारू हो जाते हैं। जनकवि बल्ली सिंह चीमा ने कहा- 'ंमंदिर में या मस्जिद में या रहता है गुरुद्वारे में/मेरा बेटा पूछ रहा था आज खुदा के बारे में/भाईचारा लाने में लग जाती है, सदियां भी/लेकिन दंगे हो जाते हैं आंख के एक इशारे पर। पंचायत चुनाव के बहाने आंख के इशारे होने लगे हैं। सदियों से एक साथ रह रहे लोगों को बताया जा रहा है कि तुम्हारा पडोसी बहुत खतरनाक है। दनपो गांव में मुस्लिम बहुत पहले से बसे हैं। उनकी बड़ी संख्या है। वे यहीं के वासिन्दे हैं। यहां की सांस्कृतिक थाती पर पढ़े-बढे़ हैं। इस क्षेत्र का कोई भी सामाजिक-सांस्कृतिक आयोजन नहीं होगा जिनमें उनकी भागीदारी नहीं होगी। रामलीला से होली तक। घरों में शुभ कार्य से लेकर दुख की घड़ी तक। इससे पहले कभी हिन्दुओं ने उन्हें मुसलमान के रूप में देखा भी नहीं। उन्हें भी पता नहीं था कि वे किसी अन्य धर्म या समाज के बीच में रहते हैं। उनके लिये होली, दिवाली और ईद में कोई फर्क नहीं था। वे यहां की जागर को भी उसी तरह मानते रहे हैं जैसे हिन्दू मानते हैं। लेकिन राजनीति उन्हें बता रही है कि तुम अलग हो। तुम हमारे दुश्मन हो। दनपो गांव और फराह के बहाने उत्तराखंड के मुसलमानों पर चर्चा बहुत जरूरी हो गई है। यह पहली बार नहीं हुआ है कि कोई मुस्लिम उत्तराखंड में पंचायत का चुनाव लड़ रहा हो। राज्य में पहले भी लगभग 11 मुस्लिम पंचायत सदस्य बन चुके हैं। उत्तराखंड के पर्वतीय जिलों के 63 गांव या तो मुस्लिम बाहुल्य हैं या उनमें बड़ी संख्या में मुस्लिम रहते हैं। ये आज आये मुसलमान नहीं हैं। सदियों से रहते हैं। पीढ़ियों से। राजाओं के जमाने से। शहरों में ही नहीं गांवों में भी। मुस्लिम ही नहीं सिक्ख और ईसाई भी बड़ी संख्या में हैं। हमारे यहां पौड़ी जनपद में ही सिक्खों के एक दर्जन से ज्यादा गांव हैं। जिनमें गुलार, मंदोली, कुच्यारी, अदानी, बराथ आदि महत्वपूर्ण हैं। प्रसिद्ध स्वतंत्रता संग्राम सेनानी शीशराम पोखरियाल और हमारे साथी और उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारी स्व. देव सिंह नेगी सिक्ख समुदाय से ही थे। इन्हें हम 'सिक्ख नेगी' के नाम से जानते हैं। ये पगड़ी तो नहीं पहनते, लेकिन इनके गुरुद्वारे हैं। गढ़वाली क्षत्रियों से उनकी पुरानी रिश्तेदारियां हैं। इनमें से भी कई पंचायतों के प्रतिनिधि रहे हैं। हमारे यहां दो अंग्रेज भी ग्राम प्रधान रहे हैं। जिनमें पीटर फ्रैडरिक प्रमुख हैं जो भीमताल के जून स्टेट के ग्राम प्रधान रहे। इसलिये पंचायत चुनाव के बहाने जो खतरनाक मंसूबे हैं उन्हें समझा जाना चाहिये।
जहां तक मुसलमानों की बसासत का सवाल है, टिहरी जनपद की एक पूरी न्याय पंचायत मुस्लिम बाहुल्य गांवों की है। जब मैं इस क्षेत्र के रहने वाले अपने साथी बिलाल से बात करता हूं तो उनका अभिवादन प्रणाम और जय चन्द्रबदनी से होता है। उन्होंने मुझे अपने क्षेत्र के मुस्लिम समाज की बहुत सारी जानकारियां दी। उन्हें कभी फिर लिखूंगा। ब्लाक जाखणीधार के अंजलीसैंण क्षेत्र में मोली, अंधरेठी (कफलना), गौधांस, सुनाली, भंटवाड़ी, निराली, बोस्टा, चुनारकोटी, पहलगांव, निगवाली, मथमिंगवाली जैसे मुस्लिम बाहुल्य गांव हैं। ये राजा के समय से यहां बसे थे। यहीं के होकर रह गये। यहीं के दुख-सुख में शामिल रहे। यहीं की संस्कृति में रच-बस भी गये। यहां से समय-समय पर पंचायत चुनावों में मुसलमान प्रतिनिधि चुने जाते रहे हैं। रेहाना बेगम बास्टा ग्राम की ग्राम प्रधान रही। पिछली बार यह सीट अनुसूचित जाति के लिये आरक्षित हो गई थी। निंगवाली गांव से बसीर अहमद ग्राम प्रधान चुने गये। इस बार भी चार प्रत्याशी चुनाव मैदान में हैं। पौड़ी जनपद के कांडाखाल, पल्लगांव, रामगांव, जुड्डा बुंगधार, सिमली, मसोली आदि में 20वीं सदी के आरंभ में ही मुसलमान आ बसे थे। इनमें ज्यादातर गूजर थे। ये मालिनी नदी में भैंस चराते थे। अवसर पाकर गांवों में कृषि और पशुपालन करते। गढ़वाल में मिरासी बड़ी संख्या में हैं। उन्होंने यहां की सांस्कृतिक थाती को आत्मसात किया। गढ़वाल में तो 'सैद' अथवा 'सैयद' की जागर भी लगती है। लोक के मर्मज्ञ केशव अनुरागी तो बड़े मनोयोग से सैद्वाली गाते थे- 'सल्लाम वालेकुम, सल्लाम वालेकुम/त्यारा मियाॅ रतनागाजी, सल्लाम वालेकुम/तेरी ओ बीबी फातिमा, सल्लाम वालेकुम/त्यारा बेगौड़ गाजिना, सल्लाम वालेकुम/तेरी ओ कलमा कुरान, सल्लाम वालेकुम/सल्लाम वालेकुम, सल्लाम वालेकुम।'
पिथौरागढ़ और चंपावत जिलों के दर्जनों गांवों में सदियों से मुसलमान रहते हैं। देवलथल (उसेल), लोहाघाट के कोली भेक, चंपावत का मनिहार गोठ और जौलजीवी में मुसलमानों की बड़ी बसासत रही है। मनिहार गोठ में जो मस्जिद बनी है उसकी बनावट हमारे गांव में बने पत्थरों की ही है। यहां भेक गांव के नसीम अहमद जो टनकपुर में शिक्षक हैं को लोगों ने पकड़कर छात्र संघ का चुनाव लड़ाया। वे आज भी यहां के सबसे लोकप्रिय नागरिकों में हैं। देवलथल (उसेल) ब्राह्मणों का गांव है। यहां बड़ी संख्या में मुसलमान रहते हैं। हमारे साथी और जागरूक पत्रकार जहांगीर राजू बताते हैं कि उनके पुरखों का यहां के सामाजिक और सांस्कृतिक ताने-बाने से बहुत गहरा रिश्ता रहा है। राजू बताते हैं कि उनके पुरखे शेख रहमतुल्ला 150 साल पहले शुरू हुई रामलीला के पहले लाइटमैन थे। उन दिनों गैस से रामलीला होती थी। उसकी पूरी व्यवस्था शेख रहमतुल्ला के जिम्मे रहती थी। उसेल गांव में आज भी मुसलमानों के चढ़ावे के बिना मंदिर में पूजा नहीं होती। देवलथल में एक परंपरा है कि जब उसेल से होली देवलथल आयेगी तो वह सबसे पहले मुसलमान के घर जायेगी। राजू बताते हैं कि आज भी यह होली सबसे पहले उनके ही घर आती है। उन्होंने बताया कि उनके दादा एक बहुत अच्छे वैद्य थे। उनकी आयुर्वेद पर बहुत सारी किताबें बाद तक हमारे घर में थी। वे गांवों में बिना पैसे के इलाज करते थे। देवलथल बाराबीसी पट्टी में पड़ता है। कई गांवों का केन्द्र। इस इलाके के लोग बड़ी संख्या में सेना में हैं। जब वे छुट्टी में घर आते तो उन्हें देवलथल से घर जाने में देर हो जाती थी। राजू की दादी ने अपने घर को ही धर्मशाला बना लिया था। जो भी फौजी छुट्टी पर आता उसका ठिकाना उनका ही घर होता था। दादी उन्हें खाना खिलाती। उनका बगीचा था। सुबह जाते समय वह अपने बगीचे के फल भी फौजी के बैग में रख देती। वह उन्हें अपने किसी संबंधी की तरह विदा करती। उन्हें पता नहीं था कि वे कौन हैं। राजू बताते हैं कि उनके पिताजी का चूड़ी-चरेऊ बेचने का काम था। पूरे इलाके में उनके पिताजी को कोई नाम से नहीं पुकारता था। रिश्ते से पुकारते थे- दाज्यू, काका, चचा, ताऊ आदि।
पिथौरागढ़ के ही धरमघर में मुसलमानों का बहुत पुराना परिवार रहता है। अल्मोड़ा के भंडरगांव, बग्वालीपोखर, कुंवाली, मजखाली, रियूनी, सोमेश्वर, चनौदा, बचखनिया (चैखुटिया), द्वारसौं आदि गांवों में बड़ी संख्या में मुसलमान सदियों से रह रहे हैं। कभी आप देहरादून जा रहे हों तो आपको मुजफ्फरनगर के पास एक होटल मिलेगा- चीतल। यह होटल रियूनी के मुसलमान परिवार का है। इस परिवार का यहां के सांस्कृतिक-सामाजिक जीवन में बहुत योगदान रहा है। मेरे क्षेत्र गगास घाटी के भंडरगांव और बग्वालीपोखर बाजार में बड़ी संख्या में मुसलमान सदियों से रहते आये हैं। यहां हैदर और हामीद के परिवार यहां की संस्कृति का हिस्सा रहे हैं। हैदर जी के बच्चे अनवार और आमीना हमारे साथ पढ़ती थी। अनवार बाद में फौज में भर्ती हो गये थे। अब रिटायर होकर घर आ गये हैं। हामीद, उहाफ, सकूर बख्श आदि नाम आज भी याद आते हैं। इस परिवार का एक लड़का था हनीफ मोहम्मद। हम उसे हन्नू कहकर पुकारते थे। उसने वालीबाल में बहुत नाम कमाया। राष्ट्रीय स्तर पर खेला। रेलवे में खेल कोटे से भर्ती हुआ। हमारे क्षेत्र के कुंवाली में मुस्लिमों का एक गांव है- रौला खरक। इस गांव में भी पहले से ही मुसलमान रहते आये हैं। रियूनी गांव के पीरान के बिना हमारे यहां की कोई रामलीला संपन्न नहीं होती। पीरान जब रामलीला में हारमोनियम में स्वर छेड़ते तो पूरी घाटी संगीतमय हो जाती। चमोली जनपद के नन्दप्रयाग क्षेत्र में मुसलमान बहुत पहले से रहते हैं। इन मुसलमानों ने यात्रा सीजन में यात्रियों की व्यवस्था का जिम्मा भी संभाला। यहां के मुसलमानों ने यहां हिन्दू तीर्थ यात्रियों के लिये एक धर्मशाला का निर्माण भी कराया। पता नहीं इस बात में कितनी सत्यता है, लेकिन बताया जाता है कि इसी परिवार बदरुद्दीन ने ही बदरीनाथ की आरती लिखी थी।
ऐतिहासिक तथ्यों पर जायेंगे तो बहुत लंबी बात हो जायेगी। फिलहाल यहां पर्वतीय जिलों के कुछ गांवों का जिक्र कर यह कहना बहुत जरूरी है कि जिस तरह की बातें फैलाई जा रही हैं वह हमारी सदियों की परंपरा और आपसी रिश्तों को तार-तार करने की साजिश है। यह समझना बहुत जरूरी है कि मुस्लिमों का हमारी सांस्कृतिक थाती को सींचने में महत्वपूर्ण योगदान रहा है। पहाड़ की कई रामलीलायें ऐसी हैं जिनकी मुसलमानों के बिना हम कल्पना ही नहीं कर सकते। अल्मोड़ा की रामलीलाओं में दशकों से मुसलमान राम, लक्ष्मण, सीता आदि का अभिनय कर रहे हैं। हमारे बहुत सारे साथी जिनमें सुप्रसिद्ध रंगकर्मी जहूर आलम, डा. अहसान बक्श जैसे लोग भी हैं जिन्होंने हमारी लोक विधाओं रामलीला और होली को न केवल अक्षुण्ण रखा है, बल्कि उसे व्यापक फलक पर ले जाने की मुहिम भी चलाई है। इतिहासकार डाॅ. अनवर अंसारी ने लिखा है- 'यह तथ्य भी महत्वपूर्ण है कि इस्लाम स्वीकार कर लेने के पश्चात भी स्थानीय मुसलमान स्थानीय पंरपराओं से अलग नहीं हो पाये। जिस प्रकार महाराष्ट्र के मोमिन बोरा याज्ञवल्क्य स्मृति के भूमि बंटवारे को आधार मानते हैं या 'मक्का' के समान 'पढरपुर' की यात्रा करते हैं, लगभग उसी प्रकार धर्मान्तरित उत्तराखंडी मुसलमान अपने पडोसी हिन्दुओं के समान सभी ामनय देवी-देवताओं की पूजा करनते रहते हैं और मनौती मनाते हैं। मस्जिद से मुक्ति पाने के लिये पर्वतीय लोग देवी-देवताओं की शरण में जाते हैं। प्रथम विश्व युद्ध के पहले तक गढ़वाल के ग्रामीण मुसलमानों के पुरोहित ब्राह्मण ही हुआ करते थे।'
इस तरह उत्तराखंड के मुस्लिम समाज के बारे में जिस तरह की भ्रांतियां फैलाई जाती रही हैं या अब पंचायत चुनाव के बहाने जो काल्पनिक डर पैदा किया जा रहा है उससे सावधान रहने की जरूरत है। हमें किसी मुस्लिम या बाहर वाले से खतरा नहीं है। हमें खतरा है पहाड़ को लीलने वाले उन अपनों से जो सत्ता में बैठकर पहाड़ का सौदा करने में लगे हैं। उन लोगों से जो मैदानी जिलों को उत्तराखंड में मिलाना चाहते हैं। उनसे जो पूंजीपतियों के लिये भूमि कानून लाकर हमारी जमीनों पर डाका डाल रहे हैं। खतरा है उनसे जो हमारे स्कूल बंद कर रहे हैं। खतरा उनसे है जो हमारे अस्पतालों को पीपीपी मोड पर दे रहे हैं। खतरा है उनसे जो पंचेश्वर जैसे विनाशकारी बांध बना रहे हैं। खतरा है उनसे जो गैरसैंण राजधानी के खिलाफ कुचक्र रच रहे हैं। खतरा है उनसे जो मोबाइल गाडियों से शराब पहुंचा रहे हैं। खतरा है उनसे जो देवप्रयाग में शराब की फैक्ट्री खोल रहे हैं। खतरा है उनसे जो सिडकुल में कंपनियों को बंद करा रहे हैं। खतरा है उनसे जो हमारी एक पूरी पीढ़ी की चेतना को समाप्त कर देना चाहते हैं। सदियों की हमारी पंरपराओं, मान्यताओं, आपसी भाईचारे, सौहार्द और सहकारिता से चलने वाले समाज को लील लेना चाहते हैं। जो हमारी संास्कृतिक चेतना को अपने सांप्रदायिक एजेंडे से समाप्त करना चाहते हैं, उनसे हमें खतरा है। सोशल मीडिया में फैलाये जा रहे जहर का मकसद यही है।