तबादले के नाम पर अन्याय के विरोध में मद्रास हाईकोर्ट की मुख्य न्यायाधीश का इस्तीफा
नई दिल्ली। न्यायपालिका के इतिहास में 6 सितंबर को एक और काला पन्ना जुड़ गया। और इसके साथ ही सर्वोच्च न्यायिक संस्था के सरकार के सामने निर्लज्ज समर्पण का चक्र भी पूरा हो गया। दिलचस्प बात यह है कि यह सब कुछ उस मुख्य न्यायाधीश महोदय की अगुआई और निर्देशन में हुआ जिन्होंने इसी सरकार के दौरान लोकतंत्र के खात्मे की दुहाई दी थी। लेकिन अब जबकि एक के बाद एक मामले सामने आ रहे हैं तो लगता है कि उसके खात्मे का सबसे बड़ा सूत्रधार खुद वही बन गए हैं।
एक डरी हुई न्यायपालिका भला क्या किसी नागरिक को न्याय दिला पाएगी जो खुद अपने एक जज के साथ न्याय नहीं कर सकती है और वह भी एक महिला जज के साथ। जी हां, हम यहां बात मद्रास हाईकोर्ट की चीफ जस्टिस विजय के ताहिलरमानी की कर रहे हैं। उन्होंने हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस पद से कल इस्तीफा दे दिया। अभी उनकी सेवा को एक साल से ज्यादा बचे थे। यह फैसला निजी कारणों से नहीं और न ही किसी स्वास्थ्य या फिर दूसरी व्यक्तिगत दिक्कतों से उन्होंने लिया है। यह सीधा-सीधा अपने साथ हुए अन्याय के प्रतिकार स्वरूप लिया है।
दरअसल उनका तबादला तीन न्यायाधीशों वाली मेघालय हाईकोर्ट में कर दिया गया था। साथ ही वहां के चीफ जस्टिस ए के मित्तल का तबादला मद्रास हाईकोर्ट कर दिया गया। ताहिलरमानी ने कोलेजियम से अपने इस फैसले पर पुनर्विचार करने के लिए कहा था लेकिन कोलेजियम ने ऐसा करने से इंकार कर दिया। और उन्हें मेघालय हाईकोर्ट ज्वाइन करने का निर्देश दिया। बेहद ईमानदार और अपने कई ऐतिहासिक फैसलों के लिए जानी जाने वाली जस्टिस ताहिलरमानी का न केवल यह डिमोशन था बल्कि अपने तरह का एक अपमान भी था। क्योंकि उन्हें 75 जजों वाले मद्रास हाईकोर्ट के मुखिया पद से हटाकर तीन जजों वाले मेघालय हाईकोर्ट भेजा जा रहा था। और वैसे भी मद्रास हाईकोर्ट देश के चार सबसे पुराने हाईकोर्टों में शुमार किया जाता है।
जबकि उन्होंने न तो कोई ऐसी गल्ती की थी और न ही उनके खिलाफ इस तरह के कोई आरोप हैं। तबादले की खबर आते ही बताते हैं कि पूरी मद्रास की बार अवाक रह गयी। दरअसल बताया जा रहा है कि बांबे हाईकोर्ट की कार्यकारी चीफ जस्टिस रहते गुजरात के संबंध में आया एक फैसला उनके गले की फांस बन गया। बताया जाता है कि गुजरात दंगों के दौरान बिलकिस बानो के साथ हुई हिंसा और रेप की घटना में बांबे हाईकोर्ट ने 2017 में सुनायी गयी सजा में पुराने फैसले को बरकरार रखा। और सभी आरोपियों को उनके कृत्यों के अनुरूप आजीवन कारावास समेत अलग-अलग सजाएं दी गयीं। शायद यही बात केंद्र की मौजूदा सरकार को नागवार गुजरी। और यह सरकार वैसे भी अपने बदले के लिए कुख्यात है। हालांकि यह बदला अभी तक राजनीतिक खेमे तक सीमित था। लेकिन इस मामले के सामने आने के साथ ही यह बात साफ हो गयी है कि उसका न केवल न्यायपालिका में दखल बढ़ गया है बल्कि एक तरह वह उसके कब्जे में चली गयी है। जस्टिस अकील कुरेशी के मध्य प्रदेश हाईकोर्ट का चीफ जस्टिस न बनने देने के मामले से लेकर पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम तक के मामले में यह बात बिल्कुल साफ-साफ देखी जा सकती है।
दिलचस्प बात यह है कि यह पहला इस्तीफा है जो कोलेजियम के साथ अपने मतभेदों के चलते हुआ है। इसके पहले भी जजों के इस्तीफे होते रहे हैं लेकिन यह अपने किस्म का नायाब फैसला है। हालांकि इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक 2017 में कर्नाटक हाईकोर्ट के एक सीनियर जज जयंत पटेल का इलाहाबाद हाईकोर्ट में तबादला कर दिया गया था। उसके बाद उन्होंने इस्तीफा दे दिया था लेकिन उन्होंने उसका कोई कारण नहीं बताया था। वैसे वह कर्नाटक हाईकोर्ट में दूसरे नंबर के वरिष्ठ जज थे। लेकिन उनके साथ भी गुजरात का ही एक मामला जुड़ा हुआ था। जिसमें गुजरात हाईकोर्ट के जज रहते उन्होंने इशरत जहां फेक एनकाउंटर मामले में सीबीआई जांच का आदेश दिया था। अब किसी के लिए समझना मुश्किल नहीं है कि उनका तबादला और फिर उसके बाद उनका इस्तीफा किन वजहों से हुआ।
ताहिलरमानी का यह तबादला 28 अगस्त को हुआ था। और उसी दिन कोलेजियम ने मेघालय हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस एके मित्तल का ट्रांसफर भी मद्रास हाईकोर्ट के लिए कर दिया था। उस दिन कोलेजियम की बैठक में चीफ जस्टिस रंजन गोगोई के अलावा जस्टिस एसए बोबडे, जस्टिस एनवी रमना, जस्टिस अरुण मिश्रा और जस्टिस रोहिंगटन एफ नरीमन शामिल थे।
उसके बाद जस्टिस ताहिलरमानी ने 2 सितंबर को कोलेजियम से अपने फैसले पर पुनर्विचार करने का निवेदन किया था। लेकिन उसके अगले ही दिन 3 सितंबर को हुई बैठक में कोलेजियम ने अपना फैसला बदलने से इंकार कर दिया। उसने कहा कि कोलेजियम ने जस्टिस ताहिलरमानी के आवेदन पर ठंडे दिमाग से विचार किया और उसके साथ ही तमाम दूसरे प्रासंगिक तथ्यों पर भी गौर किया। तमाम पक्षों पर गौर करने के बाद कोलेजियम इस नतीजे पर पहुंची कि उनके निवेदन को स्वीकार करने की कोई संभावना नहीं है।
मद्रास हाईकोर्ट की मुख्य न्यायाधीश बनने से पहले जस्टिस ताहिलरमानी तीन बार बांबे हाईकोर्ट की कार्यकारी चीफ जस्टिस रह चुकी थीं। बांबे हाईकोर्ट में उनकी 2001 में नियुक्ति हुई थी। उससे पहले वह महाराष्ट्र सरकार की वकील थीं। तमाम फैसलों में उनका एक फैसला जेल में बंद रहने के दौरान महिला कैदियों को दिया गया गर्भपात का अधिकार प्रमुख है।
जनचौक से साभार