गांधी और उनके हत्यारे


गांधी और उनके हत्यारे











आज जब महात्मा गांधी की पैदाइश के 150 साल पूरे हो रहे हैं,तब लगता है कि एक चक्र पूरा हो कर दुष्चक्र की ओर बढ़ गया है.


गांधी के महात्मा घोषित होने से शुरू हुआ सिलसिला गांधी के हत्यारों के स्तुतिगान तक आ पहुंचा है. उन हत्यारों को वीर योद्धा ठहराने,उन्हें महिमामंडित करने और गांधी को लांछित करने का अभियान आजकल इस देश में खूब तेजी से पनप रहा है.


पर क्या गांधी के हत्यारे,वास्तव में वैसे ही वीर थे,जैसा कि उनके विचार के वाहक देश को समझाना चाहते हैं ? क्या वे वास्तव में कोई मुक्तिदाता थे ?गांधी के हत्यारों के असली चेहरे समझने में जो साहित्य मददगार है,उसमें जी.डी.खोसला की एक छोटी पुस्तिका भी है. इस पुस्तिका का नाम है – द मर्डर ऑफ द महात्मा यानि महात्मा की हत्या.


जी.डी.खोसला पंजाब उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश रहे. वे उस तीन सदस्यीय खंडपीठ में बतौर न्यायाधीश मौजूद थे,जिस खंडपीठ ने सेशन कोर्ट द्वारा सजा हो जाने के पश्चात गांधी के हत्यारों की अपील सुनी थी.खोसला की उक्त पुस्तक, शिमला में गांधी के हत्यारों के अपील की सुनवाई और फांसी चढ़ने के साथ-साथ इस बात का भी विवरण देती है कि हत्यारों ने गांधी की हत्या का षड्यंत्र कैसे रचा और उसे कैसे अंजाम दिया.


गांधी के हत्यारों, खासतौर पर नाथूराम गोडसे ने अदालत में यह साबित करने की भरसक कोशिश की कि इस हत्या के पीछे कोई षड्यंत्र नहीं था. सेशन कोर्ट से सजा हो जाने के पश्चात हाई कोर्ट में हत्या को नकारने के लिए नहीं बल्कि षड्यंत्र की बात नकारने के लिए ही अपील की गयी.


लेकिन खोसला के सिलसिलेवार विवरण से स्पष्ट होता है कि गांधी की हत्या, निश्चित ही किसी एक व्यक्ति की कुंठा या उत्तेजना का परिणाम नहीं थी. यह एक सुनियोजित षड्यंत्र था,जिसको भरपूर आर्थिक मदद मिल रही थी. गांधी के हत्यारे बंबई(अब मुंबई) और दिल्ली में होटलों में रह रहे थे,वे न केवल ट्रेन से यात्रा कर रहे थे,बल्कि हवाई जहाज से भी दिल्ली-बंबई आ-जा रहे थे.


आज से 70 साल पहले हवाई जहाज का सफर कोई मामूली खेल नहीं रहा होगा. बड़े रईसों के लिए यह मुमकिन था. और इधर हत्यारों का एक गिरोह था,जो गांधी के हत्या करने के लिए बंबई से दिल्ली हवाई जहाज में आ रहा था !


गांधी की हत्या करने के लिए निकलने से पहले 13-14 जनवरी 1948 को नाथूराम ने अपनी दो जीवन बीमा पॉलिसियों का लाभार्थी अपने सह अभियुक्त नारायण आप्टे और अपने भाई गोपाल गोडसे की पत्नियों को बनाया. और कितने की थी ये जीवन बीमा पॉलिसियां ? एक 2000 रुपये की और दूसरी 3000 रुपये की यानि कुल 5000 रुपये.उस वक्त 5000 रुपये अच्छी-ख़ासी रकम थी.


नाथूराम कोई धन्नासेठ नहीं था, ना ही वह किसी अमीर खानदान से था. बल्कि 6 भाई-बहनों वाले परिवार में वह दूसरे नंबर पर था और उसके पिता गाँव के एक मामूली पोस्टमास्टर थे. उसने बिना मैट्रिक पास किए स्कूल छोड़ दिया था. उसने कपड़े का छोटा-मोटा कारोबार शुरू किया पर वह चल न सका,फिर वह टेलरिंग के कारोबार में शामिल हो गया पर वहाँ भी सफल न हुआ.


उसके बाद वह आरएसएस और हिन्दू महासभा में शामिल हो गया. इस तरह देखें तो कारोबारी रूप से नाथूराम एक विफल व्यक्ति था. लेकिन उसके पास हजारों रुपए की बीमा पॉलिसियाँ थीं और वह दूसरी बार में हवाई जहाज से गांधी को मारने बंबई से दिल्ली आया था. तो निश्चित ही कोई न कोई था,जो उसके और हत्या में शामिल अन्य लोगों का वित्त पोषण कर रहा था.


गांधी के हत्यारे,गांधी से बेहद नाराज थे. इस नाराजगी को लेकर सेशन कोर्ट और हाई कोर्ट में गोडसे ने लंबा चौड़ा भाषण भी दिया था. लेकिन ये अंग्रेजों से कतई नाराज नजर नहीं आते. अंग्रेजों की गुलामी के प्रति कोई आक्रोश इनमें नहीं दिखता.


इनकी पृष्ठभूमि से इस बात की पुष्टि होती है. नाथूराम गोडसे का छोटा भाई और गांधी हत्या का एक अभियुक्त गोपाल गोडसे सेना में सिविलियन स्टोर कीपर के तौर पर काम करता था.वह बकायदा छुट्टी की अर्जी दे कर गांधी की हत्या में शामिल होने आया था.


नाथूराम के साथ फांसी चढ़ने वाला नारायण आप्टे 1943 में भारतीय वायु सेना यानि भारत में अंग्रेजों की वायु सेना में भर्ती हुआ था.20 जनवरी 1948 को गांधी की हत्या की कोशिश करने वाला मदनलाल पाहवा भी इसी दल का सदस्य था. वह स्कूल से भाग कर रॉयल इंडियन नेवी यानि अंग्रेजों की नौ सेना में भर्ती होने गया था. परीक्षा में फेल होने के बाद वह थलसेना में शामिल हुआ.


इस तरह देखें तो गांधी की हत्या को देशभक्ति पूर्ण कृत्य ठहराने वाले इन हत्यारों को अंग्रेजों की सेना में भर्ती होने में कोई ऐतराज नहीं था,बल्कि वे प्रयास कर अंग्रेजों की सेना में भर्ती हुए थे. और सोशल मीडिया पर चलने वाला एक संदेश ठीक ही कहता है कि नाथूराम और उसके साथी बंदूक चलाना जानते थे,लेकिन उन्होंने एक भी गोली अंग्रेजों के खिलाफ नहीं चलायी. अपनी ज़िंदगी में उन्होंने यदि गोली चलायी तो एक ऐसे 79 साल के निहत्थे बूढ़े पर चलायी,जो अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई के एक मोर्चे पर खड़ा रहा था.


इन हत्यारों के वैचारिक सहोदर गांधी हत्या के कृत्य करने वालों को वीर साबित करने का भरसक प्रयास करते हैं. पर क्या गोली चलाने मात्र से कोई वीर सिद्ध हो जाता है ? नाथूराम के भाई गोपाल गोडसे ने जेल से छूटने के बाद गांधी की हत्या को जायज ठहराने के लिए “गांधी वध क्यूँ” नामक किताब निकाली. यह पुस्तक गांधी की हत्या को जायज ठहराने और स्वयं के कृत्य को वीरतापूर्ण सिद्ध करने के लिए ही निकाली गयी.


लेकिन किताब लिख कर स्वयं को वीर सिद्ध करने की कोशिश करने वाले गोपाल गोडसे ने अदालत में क्या किया ?गोपाल गोडसे ने अदालत में इस षड्यंत्र में अपनी किसी भी तरह की भूमिका होने से इंकार कर दिया,यहाँ तक कि 18 जनवरी 1948 को दिल्ली जाने की बात से भी वह अदालत में मुकर गया.


20 जनवरी 1948 को गांधी की हत्या की कोशिश करने वाले मदन लाल पाहवा ने अदालत में कहा कि वह तो सिर्फ अपना आक्रोश प्रकट करना चाहता था,उसका मकसद किसी को नुकसान पहुंचाना नहीं था. जबकि यही पाहवा अपने परिचित बंबई के एक प्रोफेसर डॉ.जे.सी.जैन से देश के एक नेता की हत्या की योजना के बारे में उल्लेख कर चुका था. फिर अगली मुलाक़ात में उसने जैन को बताया कि वह नेता महात्मा गांधी है.


नाथूराम के साथ फांसी की सजा पाने वाला नारायण आप्टे तो इस बात से ही मुकर गया कि वह ग्वालियर में बंदूक खरीदने के बाद गोडसे के साथ दिल्ली वापस गया था.


नाथूराम गोडसे और नारायण आप्टे ग्वालियर के डॉ.दत्तात्रेय परचुरे के पास हत्या में प्रयोग की जाने वाली पिस्तौल खरीदने गए थे. लेकिन अदालत में परचुरे इस बात से साफ मुकर गया. उसने अदालत में कहा कि गोडसे और आप्टे ने तो उससे दिल्ली में शांतिपूर्ण प्रदर्शन करने के लिए स्वयंसेवक भेजने को कहा था.


इस तरह देखें तो अदालत के बाहर गांधी हत्या को गांधी वध कह कर अपनी वीरता की डींग हाँकने वाले सभी पात्र, अदालत के अंदर यह मानने को ही तैयार नहीं थे कि इस हत्या से उनका कोई लेना-देना भी था.


गांधी की हत्या का आरोप एक और व्यक्ति पर लगा था,उसका नाम था-विनायक दामोदर सावरकर. लेकिन सावरकर चूंकि सेशन कोर्ट में संदेह के आधार पर बरी कर दिये गए थे,इसलिए जी.डी.खोसला की किताब में उनका जिक्र नहीं मिलता. लेकिन सावरकर की “वीरता” की दास्तान परचुरे के वकील पी.एल. इनामदार की किताब : द रेडफोर्ट ट्रायल-1948-49 में मिलती है. पॉपुलर प्रकाशन से छपी इस किताब के पृष्ठ संख्या- 141,143 और 147 पर इनामदार ने सावरकर पर बड़ी तीखी टिप्पणी की है.


अपने लेख : गांधी एसैसिनेशन – गोडसे एंड आरएसएस कनेक्शन में ए.जी.नूरानी ने इनामदार के लिखे हुए को विस्तार से उद्धरित किया है.उसके अनुसार इनामदार लिखते हैं कि “लाल किले में चले मुकदमे के दौरान सावरकर,अपने बगल में बैठे हुए नाथूराम की तरफ देखते तक नहीं थे.बाकी आरोपी एक दूसरे के साथ निश्चिंत हो कर बातचीत करते थे पर सावरकर उन सबसे गाफिल बने रहते थे.” इनामदार आगे लिखते हैं कि “बहुत बार अपनी बातचीत में नाथूराम ने मुझसे कहा कि वो कोर्ट और जेल में तात्याराव(सावरकर) के इस सुनियोजित अजनबीपन के व्यवहार से बेहद आहत है.” इनामदार ने यह भी लिखा है कि वकील के तौर पर एक बार सावरकर ने उन्हें मशवरे के लिए बुलाया तो पूरे समय अपनी रिहाई की संभावनाओं के बारे में ही चर्चा की,एक भी बार उनके मुवक्किल परचुरे या गोपाल गोडसे या नाथूराम सहित किसी अन्य अभियुक्त के बारे में एक शब्द भी नहीं पूछा. गौरतलब है कि इस केस के एक आरोपी दिगंबर बड़गे था,जो बाद में वादमाफ़ गवाह बन गया था. बड़गे ने अपनी गवाही में कहा था कि नाथूराम गोडसे और नारायण आप्टे, गांधी की हत्या करने के लिए बंबई से 17 जनवरी 1948 को सावरकर के घर से निकले थे.


उनके साथ मौजूद बड़गे ने अदालत में कहा कि उनकी योजना सुनने के बाद, सावरकर ने उन्हें मराठी में आशीर्वाद दिया-यशस्वी होउन,जिसका हिन्दी में अर्थ है-विजयी भव.बड़गे की गवाही की पुष्टि करने वाला कोई दूसरा गवाह नहीं था,इस आधार पर सेशन जज आत्माराम ने सावरकर को बरी कर दिया था.
गांधी की हत्या के मुख्य अभियुक्त नाथूराम गोडसे की “वीरता” पर भी नजर डाल ली जाये. जी.डी.खोसला की किताब में इस बात का उल्लेख है कि नाथूराम को इस बात का भरोसा था कि गांधी की हत्या करने के बावजूद अपने वाक चातुर्य के बल पर गांधी हत्या के प्रति उसके अच्छे मंतव्य को लेकर वह अदालत और सरकार को आश्वस्त करने में कामयाब हो जाएगा और अपने कृत्य को न्यायोचित साबित कर देगा.


अदालत में उसने ऐसी कोशिश की भी. लेकिन पहले सेशन कोर्ट और फिर हाई कोर्ट ने उसकी मृत्युदंड की सजा कायम रखी. अदालत में गांधी हत्या के अपने कृत्य को जायज ठहराने के लिए लंबी-चौड़ी तकरीर करने वाले नाथूराम के बदलने और लड़खड़ाने का जिक्र भी जी.डी.खोसला ने किया है. वे लिखते हैं कि यह ज्ञात हुआ कि जेल में अपने अंतिम दिनों में गोडसे को अपने कृत्य पर अफसोस हुआ और उसने घोषणा की कि अगर उसे दूसरा मौका मिले तो वह अपना शेष जीवन शांति के प्रसार और देश की सेवा में बिताना चाहेगा.


खोसला लिखते हैं कि जब उसे फांसी चढ़ाने ले जाया जा रहा था तो उसके कदम लड़खड़ा रहे थे,उसके चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रही थी और उसका गला खुश्क हो रहा था. आज जो गोडसे की घृणा वाले विचार के वाहक हैं,उनके मुंह पर गोडसे के अंतिम समय का यह विवरण एक करारा तमाचा है.


यह भी देख लिया जाये कि एक नया-नया आजाद हुआ और लोकतन्त्र होने की तरफ बढ़ता मुल्क, अपने देश के सबसे बड़े नेता के हत्यारों के साथ कैसे पेश आया. 20 जनवरी 1948 को जब मदन लाल पाहवा ने हमला किया तो हत्यारों को उम्मीद थी कि गांधी की प्रार्थना सभा में धमाका होते ही भगदड़ मच जाएगी और तब वो आसानी से गांधी को निशाना बना सकेंगे. पर कोई भगदड़ नहीं मची और लोगों ने पकड़ कर पाहवा को पुलिस के हवाले कर दिया.


30 जनवरी 1948 को जब गोडसे ने गांधी पर गोली चलायी तो भीड़ उसे मारना चाहती थी,लेकिन पुलिस ने उसे भीड़ से बचा लिया. भीड़ अपने सबसे बड़े नेता की हत्या के बाद भी पुलिस से नियंत्रित हो गयी. गोडसे के गुणगान के वर्तमान दौर में भीड़ हत्या एक आम बात है और पुलिस का ऐसे मौके पर मूकदर्शक बना रहना भी उतना ही आम है.


गांधी की हत्या का मुकदमा जिन आरोपियों पर चला,उन्हें अपनी पसंद के वकील रखने की स्वतन्त्रता दी गयी. नाथूराम के अलावा सभी ने वकील रखे,उसने अपनी जिरह खुद करने का फैसला किया था. एक अभियुक्त शंकर किश्तय्या को सरकारी खर्च पर वकील उपलब्ध करवाया गया क्यूंकि वह बेहद गरीब होने के चलते वकील नियुक्त करने में सक्षम नहीं था. क्या आज ऐसा सोचा जा सकता है ?


बीते दिनों एक अभिनेत्री ने कहा कि जिनकी भगत सिंह बनने की औकात नहीं वो गांधी बन जाते हैं. भगत सिंह, आजादी की लड़ाई में गांधी के रास्ते के आलोचक थे. लेकिन वे गांधी को शत्रु नहीं समझते थे. गांधी बनो,मुमकिन हो तो भगत सिंह बनो पर गोडसे कतई मत बनो,गोडसे की हिंसा,घृणा और कायरता की राह मत चुनो.