ईको सिस्टम की रक्षा में किसानों का परम्परागत ज्ञान ज्यादा समृद्ध
पुरुषोत्तम शर्मा
16–17 जून 2013 को उत्तराखंड में आई विनाशकारी आपदा ने पहाड़ पर विकास के माडल और इको सिस्टम (पारिस्थितिकीय तंत्र) से छेड़छाड़ पर बहस को तेज कर दिया है. इस सवाल पर सारी बहसों को अंतत: उत्तराखंड में “इको संसिटिव जोन” बनाने के समर्थन में ले जाया जा रहा है. पर्यावरणविदों के अलावा भी जल - जंगल – जमीन पर जनता के परंपरागत अधिकारों की वकालत करने वाले कई संगठन व लोग भी इसके समर्थन में खड़े दिखाई दे रहे हैं. बहसें यहीं तक नहीं रुकी हैं, पहाड़ में वर्तमान विद्युत परियोजनाओं के समर्थक भी इस तबाही को रोकने के लिए और भी बड़े पैमाने पर बांधों व सुरंगों के जरिये नदियों के वेग को रोकने की खुलकर वकालत कर रहे हैं. मगर इन सारी बहसों के बीच पहाड़ का वो मानव समाज और उसकी चिंताएं कहीं दूर तक भी नजर नहीं आ रही हैं जो हजारों वर्षों से इस पहाड़ को, यहां के इको सिस्टम को और यहां की आत्मनिर्भर स्थानीय कृषि अर्थव्यवस्था को बचाता आया है.
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