युद्धकाल में हिरोशिमा, नागासाकी, माई लाई और शान्तिकाल में भोपाल, चेर्नोबिल, विज़ाग तक जन हत्याएं
सत्यवान वर्मा
पूँजी के दैत्य के हाथों हुई हत्याओं के निशान पूरी धरती पर बिखरे हुए हैं
आज से दो साल पहले, मई का ही महीना था जब जानलेवा प्रदूषण फैला रही वेदान्ता की फ़ैक्ट्री के विरोध में तूतीकोरिन में प्रदर्शन कर रहे लोगों पर निशानेबाज़ों से गोलियाँ चलवाकर 15 लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया था। आज विशाखापट्टनम के विजाग में जो हुआ है, वह तकनीकी तौर पर भले ही “दुर्घटना” के तौर पर दर्ज हो, मगर दरअसल वह पूँजीवाद के हाथों होने वाले असंख्य औद्योगिक हत्याकाण्डों की ही एक और खू़नी कड़ी है।
विज़ाग में अब तक 12 लोगों की जान जा चुकी है और करीब 5000 लोग बीमार पड़े हैं। बड़ी संख्या में जानवर और पक्षी भी गैस के शिकार हुए हैं। सिंथेटिक स्टायरीन गैस इस क़दर ज़हरीली है कि चलते-चलते लोग सड़कों पर गिर जा रहे हैं। एम्स के निदेशक और श्वसन रोगों के विशेषज्ञ डा. गुलेरिया का कहना है कि इससे प्रभावित लोगों के उपचार के लिए कोई दवा नहीं है। उपचार केवल सहायक है। जिनके फेफड़ों को बहुत ज़्यादा नुक्सान पहुँचा है उन्हें स्टेरॉयड दिये जा सकते हैं। कई लोगों को वेंटिलेटर पर रखने की ज़रूरत हो सकती है। कोरोना के इस दौर में जब वेंटिलेटरों का पहले ही अकाल पड़ा हुआ है, ऐसे में गैस से घायल होने वाले कितने लोगों को वेंटिलेटर मिल पायेगा यह कहना मुश्किल है। बताने की ज़रूरत नहीं कि गैस से प्रभावित लोगों में ज़्यादातर मज़दूर या फिर आसपास के गाँवों में रहने वाली आम आबादी है जिनकी जान की कीमत इस व्यवस्था की निगाह में कितनी है यह हमने पिछले दो महीने में बख़ूबी देख लिया है।
तभी तो गैस रिसाव होने के दो घण्टे के भीतर ही, बिना किसी जाँच के आन्ध्र प्रदेश के डीजीपी ने एलजी पॉलीमर्स कम्पनी को क्लीनचिट दे देना अपना सबसे ज़रूरी कार्यभार समझा। लॉकडाउन के दौरान बन्द चल रही फ़ैक्ट्री को दोबारा चालू करते समय यह दुर्घटना हुई मगर डीजीपी गौतम सावंग ने फ़ौरन बता दिया कि वहाँ पर सारे सुरक्षा प्रोटोकॉल का पालन किया जा रहा था। मंत्रियों के बयान अभी से संकेत दे रहे हैं कि आने वाले दिनों में येनकेन प्रकारेण कम्पनी को बचाने की सारी कोशिशें की जायेंगी। उद्योग मंत्री एम.जी. रेड्डी ने फ़ौरन बता दिया कि गैस लीक होते ही सुरक्षा के सारे इन्तज़ाम तत्काल कर दिये गये थे, बस “थोड़ी सी” गैस फ़ैक्ट्री से बाहर निकल गयी जिसने आसपास के लोगों को ज़रा प्रभावित कर दिया। हर हाल में, लोगों की जान से बढ़कर “निवेश” है, निवेशकों को नाराज़ भला कैसे किया जा सकता है।
ऐसा कोई पहली बार नहीं हो रहा है। तुतुकुडी (तूतीकोरिन) में खुद सुप्रीम कोर्ट ने सबूतों के आधार पर माना था कि वेदांता वहाँ हवा, पानी और मिट्टी को भयंकर रूप से प्रदूषित कर रही है। मगर किया क्या? 100 करोड़ रुपये का जुर्माना लगाया (जो आज तक पूरा वसूला नहीं गया) और साथ ही प्लांट का विस्तार करने, यानी आगे और भी प्रदूषण फैलाने का लाइसेंस भी दे दिया। वेदांता ने इसके बाद कारखाने की क्षमता दोगुनी करने, यानी और भी बड़े पैमाने पर प्रदूषण का ज़हर फैलाने का काम शुरू कर दिया। इसके विरोध में जब लोग सड़कों पर उतरे तो तमिलनाडु की पुलिस ने सीधे वेदान्ता के इशारे पर काम करते हुए 15 लोगों को निशाना साधकर गोली से उड़ा दिया। न तो हवाई फ़ायर किये गये, और न ''आख़िरी रास्ते'' के तौर पर, ''आत्मरक्षा के लिए'', चेतावनी के तौर पर पैरों पर गोलियाँ मारी गयीं।
उसके बाद भी, वेदान्ता और पुलिस के ख़िलाफ़ किसी प्रभावी कार्रवाई के बजाय, इस ज़ुल्म के खिलाफ़ लड़ने वाले सैकड़ों लोगों पर झूठे मुक़दमे किये गये, उनके वकीलों को जेल भेजा गया, कार्यकर्ताओं पर हमले करवाये गये। वेदान्ता का बन्द कारख़ाना शुरू करवाने के लिए तमिलनाडु सरकार एक टाँग पर खड़ी हो गयी थी और केवल जनता के भारी दबाव में ही उसे बन्द करना पड़ा था।
ऐसे हर मौक़े पर 35 साल पहले, 2 दिसम्बर 1984 की उस काली रात को और उसके बाद भारतीय राज्य के काले कारनामों को भी याद कर लेना ज़रूरी है जब अमेरिकी कम्पनी यूनियन कार्बाइड की भोपाल स्थित कीटनाशक फ़ैक्ट्री से निकली चालीस टन ज़हरीली गैसों ने हज़ारों सोये हुए लोगों का क़त्लेआम किया था। उस दिन करीब साढ़े ग्यारह बजे रात में कारख़ाने गैस का रिसाव शुरू हुआ। फैक्ट्री के चारों ओर मेहनतकश लोगों की बस्तियों में दिनभर की मेहनत से थके लोग सो रहे थे। सुबह करीब तीन बजे भीषण विस्फोट के साथ टैंक फट गया और 40,000 किलो ज़हरीली गैसों के बादलों ने भोपाल शहर के 36 वार्डों को ढँक लिया। इनमें सबसे अधिक मात्रा में थी दुनिया की सबसे ज़हरीली गैसों में से एक मिथाइल आइसोसाइनेट यानी एमआईसी गैस।
गैस का असर इतना तेज़ था कि चन्द पलों के भीतर ही सैकड़ों लोगों की दम घुटने से मौत हो गयी, हज़ारों लोग अन्धे हो गये, बहुत सी महिलाओं का गर्भपात हो गया, हज़ारों लोग फेफड़े, लीवर, गुर्दे, या दिमाग काम करना बन्द कर देने के कारण अगले कुछ घण्टों में मर गये या अधमरे-से हो गये। बच्चों, बीमारों और बूढ़ों को तो घर से निकलने तक का मौका नहीं मिला। हज़ारों लोग महीनों बाद तक तिल-तिल कर मरते रहे और करीब छह लाख लोग दो दशक बाद तक विकलांगता और बीमारियों से जूझते रहे। आज भी भोपाल के अस्पतालों में ऐसे मरीज़ों का इलाज जारी है। यह गैस इतनी ज़हरीली थी कि पचासों वर्ग किलोमीटर के दायरे में मवेशी और पक्षी तक मर गये और ज़मीन और पानी तक में इसका ज़हर फैल गया। जो उस रात मौत से बच गये वे पच्चीस बरस बीत जाने के बाद भी आज तक तरह-तरह की बीमारियों से जूझ रहे हैं। इस ज़हर के असर से कई साल बाद तक उस इलाके में पैदा होने वाले बहुत से बच्चे जन्म से ही विकलांग या बीमारियों से ग्रस्त होते रहे। माँओं के दूध तक में यह ज़हर घुल गया। आज भी वहाँ की ज़मीन और पानी से ज़हर का असर ख़त्म नहीं हुआ है।
लेकिन यह कोई दुर्घटना नहीं थी! यह मुनाफे़ के लिए पगलाये पूँजीवाद के हाथों हुआ एक और हत्याकाण्ड था।
एमआईसी इतनी ज़हरीली गैस और ख़तरनाक गैस होती है कि उसे बहुत थोड़ी मात्रा में ही रखा जाता है। लेकिन पैसे बचाने के लिए यूनियन कार्बाइड कारख़ाने में उसका इतना बड़ा भण्डार रखा गया था जो एक शहर की आबादी को ख़त्म करने के लिए काफ़ी था। ऊपर से कम्पनी के मालिकान ने पैसे बचाने के लिए सुरक्षा के सारे इन्तज़ामों में एक-एक करके कटौती कर डाली थी। इस गैस को शून्य से पाँच डिग्री तापमान पर रखना ज़रूरी होता है, लेकिन कुछ हज़ार रुपये बचाने के लिए गैस टैंक का कूलिंग सिस्टम छह महीने पहले से बन्द कर दिया गया था। स्टाफ़ घटाकर आधा कर दिया गया था। यहाँ तक कि गैस लीक होने की चेतावनी देने वाला सायरन भी बन्द कर दिया गया था। कारख़ाने में काम करने वाले मज़दूर जानते थे कि भोपाल शहर मौत के सामान के ढेर पर बैठा है लेकिन उनकी किसी ने नहीं सुनी। ‘जनसत्ता’ के पत्रकार राजकुमार केसवानी (Raajkumar Keswani) एक साल पहले से अपनी रिपोर्टों में बार-बार चेतावनी दे रहे थे कि ऐसी कोई भयानक घटना कभी भी हो सकती है। मगर कम्पनी के मालिकान और मैनेजमेण्ट सबकुछ जानते हुए भी सिर्फ़ पैसे बचाने के हथकण्डों में लगे रहे। सरकार कान में तेल डाले सोती रही। जिस दिन ज़हरीली गैस मौत बनकर भोपाल के लोगों पर टूटी, उस दिन इन सफ़ेदपोश क़ातिलों में से किसी को खरोंच भी नहीं आयी। वे फैक्ट्री एरिया से कई किलोमीटर दूर अपने आलीशान बँगलों में, और मुम्बई तथा अमेरिका में सुरक्षित बैठे थे।
पूँजी के इस हत्याकाण्ड के बाद देश की सरकारों ने अपने ही नागरिकों के साथ जो सलूक किया वह इससे कम बर्बर और अमानवीय नहीं है। बरसों-बरस भोपाल के गैस पीड़ितों के साथ एक घिनौना मज़ाक जारी रहा। इसमें सब शामिल रहे – केन्द्र और राज्य की कांग्रेस और भाजपा सरकारें और सुप्रीम कोर्ट से लेकर निचली अदालतों तक पूरी न्यायपालिका और स्थानीय नौकरशाही।
यूनियन कार्बाइड कम्पनी के अमेरिकी प्रमुख वॉरेन एण्डरसन को भारत आते ही गिरफ़्तार कर लिया गया था, लेकिन छह घण्टे में ही उसकी न सिर्फ़ ज़मानत हो गयी बल्कि सरकार के विशेष हवाई जहाज़ से उसे दिल्ली ले जाया गया जहाँ से वह उसी दिन अमेरिका भाग गया। उसके बाद वह कभी अदालत में हाज़िर ही नहीं हुआ। लम्बी क़ानूनी नौटंकी के बाद यूनियन कार्बाइड पर इतना कम जुर्माना लगाया गया कि मरने वालों के परिवारों और विकलांग होने वाले लोगों को सिर्फ़ 12000 रुपये मुआवज़ा मिल सका – वह भी कई-कई साल बाद। कुछ लोग लड़ते रहे, पर न जाने कितने मुआवज़े के इन्तज़ार में ही दम तोड़ गये।
फिर 25 साल के इन्तज़ार के बाद 2010 में अदालत ने हत्यारों के इस गिरोह को 2-2 साल की जेल और 1-1 लाख रुपये जुर्माने की सज़ा सुनाकर छोड़ दिया। दो ही घण्टे में उनको ज़मानत भी मिल गयी और वे हँसते हुए घर चले गये। दरअसल देश की सबसे बड़ी अदालत सुप्रीम कोर्ट ने ही इन हत्यारों के ख़िलाफ़ मुक़दमा इतना कमज़ोर कर दिया था कि उन्हें कड़ी सज़ा मिल ही नहीं सकती थी। भाजपा के अरुण जेटली से लेकर कांग्रेस के अभिषेक मनु सिंघवी तक इन हत्यारों की पैरवी करने के लिए अदालत में खड़े हुए थे।
आज विज़ाग की घटना के बाद फिर गर्मागर्म जुमले और वादे उछाले जायेंगे और कुछ दिन बाद “जनता की कमज़ोर याददाश्त” की कचरा पेटी में फेंक दिये जायेंगे। इसलिए इस सच्चाई को बार-बार याद दिलाना ज़रूरी है कि विज़ाग और भोपाल महज़ हादसे नहीं, मुनाफ़े की अन्धी हवस में रचे गये हत्याकाण्ड हैं और जब तक पूँजीवाद नाम के हत्यारे दैत्य का इस धरती पर राज चलता रहेगा, तब तक ऐसे क़त्लेआम भी होते रहेंगे।