कोरोना काल में चर्चा में आईं मनरेगा और उससे जुड़े अनुभव
*उत्तराखंड में मनरेगा योजना की स्थिति*-
योजना के शुरू के वर्षो में अधिकतर ग्राम प्रधानों ने अपने परिवार के सभी सदस्यों व नजदीकियां के ( जो गांवों में नहीं रहते थे ) के जॉब कार्ड अधिक संख्या में बनवाये। योजना का पूरा संचालन क्योंकि ग्राम प्रधान के ही हाथ में होता था, उसे धन का दुरपयोग करने में कोई दिक्कत नहीं होती थी। आर. टी. आइ. के माध्यम से ग्रामीणों ने ग्राम प्रधानों से जॉब कार्ड धारकों के नाम व पते पूछने शुरू कर दिये इस प्रकार ग्राम प्रधानों के रिस्तेदारों के फर्जी जॉब कार्ड कम होते गए। योजना में पारदर्शिता लाने के उद्देश्य से जैसे-जैसे कर्मचारियों की बढ़ोतरी होती गयी, मजदूरों की हिस्सेदारी उतनी बढ़ती गई।
किन्तु आवेदक को यह कह कर बहका दिया जाता है कि ऊपर से योजना स्वीकृत होने पर रोजगार दे दिया जायेगा। जैसे आवेदन कर्ता पर अहसान कर रहे हों। आश्चर्यजनक रूप से जबसे मनरेगा योजना चली आंकड़ों के अनुसार राज्य में किसी को भी बेरोजगारी भत्ता नहीं दिया गया। याने अभिलेखों में प्रत्येक आवेदक को समय पर योजना में रोजगार उपलब्ध कराया गया।
उत्तराखंड में ऐसा करने का प्रयास किसी भी सरकार ने नहीं किया। यहां तो,( उदाहरण के लिए ) एक ही ग्राम सभा में वर्मी कम्पोस्ट पिट का निर्माण - मनरेगा, कृषि विभाग, उद्यान विभाग, जलागम, वन विभाग, ग्राम्या, आजीविका , विभिन्न स्वयंम सेवी संस्थाएं बनाने का दावा करते हैं। कितने वर्मी कम्पोस्ट पिट गांवों में बने हुए दिखाई देते हैं स्थिति सबके सामने है। हां लक्ष्य सभी विभागों के प्रत्येक वित्तीय वर्ष के पूरे हुए होंगे। लक्ष्य पूरे नहीं हुए तो गरीब ग्रामीणों के रोजगार के। इसी प्रकार अन्य कार्यो की स्थति है। यही नहीं एक ही योजना एक ही विभाग की जिला योजना में भी है, राज्य सैक्टर, विश्व बैंक, वाह्य सहायतित व भारत सरकार की योजनाओं में भी होती है।
1.एक सौ दिनों के सापेक्ष एक सौ पचास दिनों का रोजगार दिवस किये जायं।
2.मनरेगा में मजदूरी कम से कम तीन सौ रुपए की जाय। जैसा कि कई राज्यों ने अपने स्तर से किया है।
(लेखक उत्तराखण्ड के पौड़ी जिले में मनरेगा के पूर्व लोकपाल रहे हैं)