*महान नक्सलबाड़ी उभार की 55वीं वर्षगांठ पर*
दीपंकर भट्टाचार्य, महासचिव-भाकपा माले
आधुनिक भारतीय इतिहास बहुत सारे लोकप्रिय जन उभारों का साक्षी रहा है. भारतीय स्वतंत्रता के लंबे संघर्ष को उत्पीड़ित भारतीयों के विभिन्न तबकों के उभारों ने ऊर्जा प्रदान की, वे उत्पीड़ित जो सिर्फ बाहरी औपनिवेशिक सत्ता से ही उत्पीड़ित नहीं थे बल्कि उस सामाजिक ढांचे से भी उत्पीड़ित थे जो भारतीयों पर भीतर से हावी था, जैसे जाति व्यवस्था, पितृसत्ता, सामंती शक्ति, स्थानीय रजवाड़े और राजशाही.
यह चाहे पहले स्वतंत्रता संग्राम (1857-59) की बात हो या फिर गांधी के नेतृत्व में सविनय अवज्ञा और भारत छोड़ो आंदोलन जैसी व्यापक जनजागरूकता हो, या फिर 1940 के दशक में कम्युनिस्टों के नेतृत्व वाले तेभागा और तेलंगाना जैसे किसान उभार हों, उन देशज लोगों और गरीब किसानों, जिनका खून जमींदार, साहूकार और औपनिवेशिक शासक चूसते थे, के विद्रोह जनप्रतिरोध के मुख्य घटक थे.
वास्तविक समानता, स्वतंत्रता और न्याय हासिल करने के सपने को मुकम्मल करने की जद्दोजहद के साथ ये जन उभार 1947 के बाद भी जारी रहे. भूमिहीन किसानों और उत्पीड़ित चाय बागान मजदूरों का 25 मई 1967 का नक्सलबाड़ी उभार, ऐसा ही ऐतिहासिक क्षण है. इसने देश भर में उत्पीड़ितों और युवाओं को तरंगित कर दिया.
राज्य ने इसे कुचलने के लिए प्राणप्रण से युद्ध छेड़ दिया- आज के दौर में औपनिवेशिक कालीन उत्पीड़न वाले काले क़ानूनों, हिरासत में हिंसा और न्यायेतर आतंक का अंधाधुंध इस्तेमाल हम देखते हैं, उसको पहला बड़ा बल राज्य दमन की प्रयोगशाला में 1970 के दशक में मिला. परंतु नक्सलबाड़ी की विरासत अपने उभार के 55 वर्षों में हर बीतते दिन के साथ बढ़ती रही, गहराती गयी और इसका विस्तार होता रहा है.
इस उभार ने 22 अप्रैल 1969 को भाकपा(माले) के गठन का मार्ग प्रशस्त किया. अलबत्ता इस नवगठित पार्टी को न्यायेतर हिंसा और नरसंहारों समेत भारतीय राज्य के भारी दमन और क्रोध का सामना करना पड़ा. जिसमें सुहार्तो के शासनकाल में इंडोनेशिया में कम्युनिस्टों के कत्लेआम की छाप दिखती थी. लेकिन पार्टी इस तूफान में कामयाबी के साथ डटी रही. इसने भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन को व्यापक तौर पर ऊर्जा प्रदान की और उसका क्रांतिकारीकरण किया. मोदी काल में असहमति के व्यापक स्वरों को निशाना बनाने के लिए गढ़े गए शब्द “अर्बन नक्सल” का अविवेकी प्रयोग नक्सलबाड़ी की शक्ति और प्रतिरोध क्षमता को दर्शाता है.
नक्सलबाड़ी के लोकप्रिय मिथक के विपरीत यह कुछ अलग-थलग क्रांतिकारियों की चीनी क्रांति को भारतीय जमीन पर रोपने की अराजकतापूर्ण और दुस्साहसिक कार्यवाही नहीं थी. अगर ऐसा होता तो वह एक अल्पजीवी बुलबुला सिद्ध होता. वह एक जन आलोड़न था, जिसकी गहरी जड़ें, अन्याय और दमन के खिलाफ होने वाले विद्रोहों की भारतीय परंपरा में थी. उसमें भारत के स्वतंत्रता संग्राम की चिंगारी और ऊर्जा थी, वह क्रांतिकारी संभावना और परंपरा को महसूस करने की एक साहसपूर्ण कार्यवाही थी.
कम्युनिस्ट आंदोलन के इतिहास के भीतर यह तेभागा और तेलंगाना की भावना को पुनर्जीवित करने का सुदृढ़ प्रयास था, आजादी के बाद जनता के मोहभंग और राजनीतिक संक्रमण (1967 के चुनावों में कॉंग्रेस नौ राज्यों में चुनाव हार गयी थी) को एक सुदृढ़ क्रांतिकारी धार देने की कोशिश थी.
कॉमरेड चारु मजूमदार तेभागा आंदोलन के एक समर्पित संगठक थे और अपने कॉमरेडों की टीम और डूयार्स और दार्जिलिंग व उत्तरी बंगाल के संघर्षशील लोगों के साथ तेभागा के समय के पूरे अनुभव और विकसित अंतर्दृष्टि का उपयोग उन्होंने नक्सलबाड़ी के उभार को विकसित करने में लगाया. भाकपा(माले) की स्थापना और तेज गति से फैलाव ने क्रांतिकारी कम्युनिस्ट आंदोलन की गहरी जड़ों, उसकी जमीनी स्वीकार्यता और शक्ति को प्रदर्शित किया. और जिस तरह से 1970 के घोषित आपातकाल से लेकर फासीवादी हमले के वर्तमान शासन तक यह आंदोलन अपनी जमीन को मजबूती से पकड़े रखने और अपने क्षितिज को विस्तारित करने में कामयाब रहा, वह इसकी अंतर्निहित शक्ति और जीवंतता को प्रदर्शित करता है.
आंदोलन के शहीदों, इस महान उद्देश्य के लिए अपना जीवन समर्पित करने वाले नेताओं व कार्यकर्ताओं तथा उन सभी कवियों, गायकों जिन्होंने इसके संदेश को पूरे भारत में फैलाया तथा आंदोलन को कायम रखने के लिए जबर्दस्त दमन का सामना साहस, ऊर्जा और प्रेम से करने वाले संघर्षों के इलाकों की जनता के प्रति नक्सलबाड़ी की 55वीं वर्षगांठ पर हम अपना सम्मान प्रकट करते हैं. नक्सलबाड़ी, उत्पीड़न और अन्याय के खिलाफ जनप्रतिरोध की अपराजेय भावना का प्रतीक बन गया है.
यह सत्ता के मद में चूर शासकों की हेकड़ी और आक्रामकता के विरुद्ध संघर्षशील जनगण की विजयी मुस्कान है.
नक्सलबाड़ी को लाल सलाम!